सीमा सुरक्षा बल
विवरण
'सीमा सुरक्षा बल' एक अर्धसैनिक बल है, जिसकी स्थापना शांति के समय के दौरान भारत सीमाओं की रक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय अपराध को रोकने के लिए की गई थी।
स्थापना
1 दिसम्बर, 1965
गठनकर्ता
के. एफ़. रुस्तमजी के कुशल नेतृत्व में 'सीमा सुरक्षा बल' का गठन किया गया था।
वाहिनियाँ
175
विशेष
पंजाब, जम्मू और कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व में आतंकवाद को समाप्त करने तथा थल में वामपंथी चरमपंथी से निपटने में 'सीमा सुरक्षा बल' ने अदम्य साहस का परिचय दिया है।
संबंधित लेख
भारतीय थल सेना, भारतीय वायु सेना, भारतीय सशस्त्र सेना, भारतीय नौसेना
अन्य जानकारी
'सीमा सुरक्षा बल' अपनी स्थापना के समय 25 वाहिनियों से प्रारंभ किया गया था। इस बल में आज 175 वाहिनियाँ हैं।
सीमा सुरक्षा बल (अंग्रेज़ी: Border Security Force; संक्षिप्त रूप- बी.एस.एफ़.) भारत की सीमा रक्षा सेना है। यह एक अर्धसैनिक बल है, जिसकी स्थापना वर्ष1965 में शांति के समय के दौरान भारत सीमाओं की रक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय अपराध को रोकने के लिए की गई थी। यह बल केंद्र सरकार की 'गृह मंत्रालय' के नियंत्रण के अंतर्गत आता है। बांग्लादेश की आज़ादी में 'सीमा सुरक्षा बल' की अहम भूमिका अविस्मरणीय है।
स्थापना
देश के उत्कृष्ट बलों में से एक 'सीमा सुरक्षा बल' की स्थापना 1 दिसम्बर, 1965 को मौलिक रूप से पाकिस्तान तथा बांग्लादेश के साथ अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को सुरक्षित बनाने के लिए की गई थी। 'सीमा सुरक्षा बल' के गठन से पहले इन सीमाओं पर संबंधित राज्य की सशस्त्र पुलिस तैनात थी, तथापि 9 अप्रैल, 1965 को गुजरात में सरदार पोस्ट, छार बेट तथा बेरिया बैट सीमा चैकियों पर पाकिस्तानी आक्रमण ने इन संवेदनशील सीमाओं की एक समान सशस्त्र बल द्वारा सुरक्षित रखने की आवश्यकता को उजागर किया।[1]
गठन
समय की मांग एक ऐसे बल की स्थापना की थी, जो सीमाओं की सुरक्षा के लिए थल सेना की तरह प्रशिक्षित हो तथा सीमा पार अपराध को रोकने के लिए पुलिस की तरह कार्य करें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु गठित सचिवों की एक समिति की सिफारिश के अनुसार दिनांक 1 दिसम्बर, 1965 को के. एफ़. रुस्तमजी के कुशल नेतृत्व में 'सीमा सुरक्षा बल' का गठन किया गया। ऑपरेशन के लिए गठित इस बल की कार्य क्षमता में लगातार वृद्धि हुई तथा आज यह बल देश का उत्तम भरोसेमंद व्यावसायिक बलों में एक है।
वाहिनियाँ
'सीमा सुरक्षा बल' अपनी स्थापना के समय 25 वाहिनियों से प्रारंभ किया गया था। इस बल में आज 175 वाहिनियाँ हैं, जिन्हें सुदृढ बनाने हेतु मुख्य प्रशिक्षण संस्थानों, विस्तृत चिकित्सा ढाँचों, आर्टिलरी रेजिमेंट, वायु तथा जल खण्ड, ऊँट कंटिनजेंट तथा स्वांग स्कवाड हैं। शांति के समय तथा लड़ाई के दौरान दोनों अवस्थाओं में अहम भूमिका निभाने हेतु, रात-दिन सीमाओं पर कृत्रिम तथा प्राकृतिक चुनौतियों का सामना करते हुए 'सीमा सुरक्षा बल' देश का अनूठा बल है।
भूमिका
सीमा प्रहरियों के लिए शांत पोस्टिंग तथा फ़ील्ड पोस्टिंग में कोई अन्तर नहीं है, क्योकि सीमा प्रहरियों के लिए यह जीवन पर्यन्त का कर्तव्य है। विगत वर्षों में बल को सौपी गई समस्त जिम्मेदारियों को 'सीमा सुरक्षा बल' ने उत्कृष्ट ढंग से निभाया है। राष्ट्र के सुरक्षा साँचे में 'सीमा सुरक्षा बल' ने सदैव महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पंजाब, जम्मू और कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व में आतंकवाद को समाप्त करने तथा थल में वामपंथी चरमपंथी से निपटने में 'सीमा सुरक्षा बल' ने अदम्य साहस का परिचय दिया है।[1]
कार्य
'सीमा सुरक्षा बल' (बी.एस.एफ़.) के कार्यों को इस प्रकार से बांटा गया है[2]-
शांति काल में
सीमा क्षेत्रों के आसपास रहने वाले नागरिकों को सुरक्षा प्रशिक्षण देना।
अंतर सीमा अपराध, अनाधिकृत तरीके से भारत की सीमा में प्रवेश की कोशिशों तथा अनाधिकृत तरीके से सीमा के पार जाने के प्रयत्नों को रोकना।
तस्करी तथा गैर क़ानूनी गतिविधियों को रोकना।
पिछले कुछ वर्षों में 'सीमा सुरक्षा बल' को सीमा की रक्षा के साथ ही साथ आतंरिक सुरक्षा के मोर्चों पर भी तैनात किया जाने लगा है।
युद्ध काल में
कम खतरे वाले स्थानों को अपने नियंत्रण में रखना
महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की सुरक्षा
शरणार्थियों के नियंत्रण में सहायता
निर्दिष्ट क्षेत्रों घुसपैठ रोकने हेतु विशेष कार्यबल
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Thursday, 30 November 2017
'सीमा सुरक्षा बल' की स्थापना 1 दिसम्बर, 1965
नागालैंड स्थापना दिवस 1 दिसम्बर
नागालैंड स्थापना दिवस
राजधानी
कोहिमा
स्थापना
1 दिसंबर, 1963
क्षेत्रफल
16,579 वर्ग किमी
ज़िले
11
साक्षरता
67.11%
राज्यपाल
निखिल कुमार
मुख्यमंत्री
नेफ्यू रियो
बाहरी कड़ियाँ
अधिकारिक वेबसाइट
अद्यतन
19:48, 24 नवम्बर 2013 (IST)
नागालैंड स्थापना दिवस 1 दिसम्बर को बनाया जाता है। नागालैंड 1 दिसंबर, 1963 को भारतीय संघ का 16 वां राज्य बना। बारहवीं - तेरहवीं शताब्दी में यहाँ के निवासियों का असम के 'अहोम' लोगों से धीरे-धीरे संपर्क हुआ, लेकिन इससे इन लोगों के रहन-सहन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेज़ों के आगमन पर यह राज्य ब्रिटिश प्रशासन के अधीन आ गया। स्वंतत्रता के पश्चात् 1957 में यह क्षेत्र केंद्रशासित प्रदेश बन गया और असम के राज्यपाल द्वारा इसका प्रशासन देखा जाने लगा। यह 'नगा हिल्स तुएनसांग' क्षेत्र कहलाया। यह प्रशासन नागरिकों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा और यहाँ असंतोष पनपने लगा। अत: 1961 में इसका नाम बदलकर ‘नगालैंड’ रखा गया और इसे 'भारतीय संघ' के राज्य का दर्जा दिया गया, जिसका विधिवत उद्घाटन 1 दिसंबर, 1963 को हुआ।
नागालैंड का एक दृश्य
नागालैंड
मुख्य लेख : नागालैंड
इस राज्य के पूर्व में म्यांमार, उत्तर में अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम में असम और दक्षिण में मणिपुर से घिरा हुआ है। इसकी राजधानी कोहिमा है और इसे 'पूरब का स्विजरलैंड' भी कहा जाता है। नागालैंड राज्य का क्षेत्रफल 16,579 वर्ग किमी है। 2001 का जनगणना के अनुसार इस राज्य की आबादी 19,88,636 है। असम घाटी की सीमा से लगे क्षेत्र के अलावा इस राज्य का क्षेत्र अधिकांशत: पहाड़ी है। इसकी सबसे ऊंची पहाड़ी का नाम सरमती है जिसकी ऊंचाई 3,840 मीटर है। यह पर्वत शृंखला नागालैंड और म्यांमार के मध्य एक प्राकृतिक सीमा रेखा का निर्माण देती है।
विश्व एड्स दिवस (अंग्रेज़ी:World AIDS Day) 1 दिसंबर
विश्व एड्स दिवस
विवरण
एड्स एक ख़तरनाक बीमारी है, मूलतः असुरक्षित यौन संबंध बनाने से एड्स के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
शुरुआत
1 दिसंबर, 1988
उद्देश्य
लोगों को एड्स के प्रति जागरूक करना है। जागरूकता के तहत लोगों को एड्स के लक्षण, इससे बचाव, उपचार, कारण इत्यादि के बारे में जानकारी दी जाती है।
अन्य जानकारी
यूएनएड्स के मुताबिक, कि अब तक 34 मिलियन लोग एड्स से ग्रसित हैं और 2010 तक 2.7 मिलियन लोग इस इंफेक्शन के संपर्क में आए हैं, जिसमें से 3 लाख 90 हजार बच्चे भी इसकी चपेट में आएं।
विश्व एड्स दिवस (अंग्रेज़ी:World AIDS Day) 1 दिसंबर को मनाया जाता है। एड्स एक ख़तरनाक रोग है, मूलतः असुरक्षित यौन संबंध बनाने से एड्स के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इस बीमारी का काफ़ी देर बाद पता चलता है और मरीज भी एचआईवी टेस्ट के प्रति सजग नहीं रहते, इसलिए अन्य बीमारी का भ्रम बना रहता है।
शुरुआत
विश्व एड्स दिवस की शुरूआत 1 दिसंबर 1988 को हुई थी जिसका उद्देश्य, एचआईवी एड्स से ग्रसित लोगों की मदद करने के लिए धन जुटाना, लोगों में एड्स को रोकने के लिए जागरूकता फैलाना और एड्स से जुड़े मिथ को दूर करते हुए लोगों को शिक्षित करना था। दरअसल, विश्व एड्स दिवस आपको याद कराता है कि ये बीमारी अभी भी हमारे-आपके बीच है और इसे लगातार खत्म की कोशिशों में आपको भी आगे आना होगा। यूएनएड्स के मुताबिक, अब तक 34 मिलियन लोग एड्स से ग्रसित हैं और 2010 तक 2.7 मिलियन लोग इस इंफेक्शन के संपर्क में आए हैं, जिसमें से 3 लाख 90 हजार बच्चे भी इसकी चपेट में आए। इतना ही नहीं पिछले पांच सालों में यानी 2010 तक एड्स से ग्रसित लगभग 1.8 मिलियन लोगों की मौत हो चुकी है। आमतौर पर देखा गया है कि एड्स अधिकतर उन देशों में है जहां लोगों की आय बहुत कम है या जो लोग मध्यवर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। बहरहाल, एचआईवी एड्स आज दुनिया भर के सभी महाद्वीपों में महामारी की तरह फैला हुआ है जो कि पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के जीवन के लिए एक बड़ा खतरा है और जिसे मिटाने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं।[1]
उद्देश्य
हर वर्ष 1 दिसंबर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है। जिसका उद्देश्य लोगों को एड्स के प्रति जागरूक करना है। जागरूकता के तहत लोगों को एड्स के लक्षण, इससे बचाव, उपचार, कारण इत्यादि के बारे में जानकारी दी जाती है और कई अभियान चलाए जाते हैं जिससे इस महामारी को जड़ से खत्म करने के प्रयास किए जा सकें। साथ ही एचआईवी एड्स से ग्रसित लोगों की मदद की जा सकें। 1 दिसंबर 2011 में विश्व एड्स दिवस की थीम ‘गैटिंग जीरों’ पर केंद्रित है। जिसके तहत कैंपेन, इंट्रैक्टिव एक्टिविटीज की जाती है जिससे लोगों को एड्स के बारे में अधिक से अधिक जानकारी दी जा सकें।[1]
भारत में एड्स
भारत में आज भी जिन्हें एड्स है वे यह बात स्वीकारने से कतराते हैं। इसकी वजह है घर में, समाज में होने वाला भेदभाव। कहीं न कहीं आज भी एचआईवी पॉजीटिव व्यक्तियों के प्रति भेदभाव की भावना रखी जाती है। यदि उनके प्रति समानता का व्यवहार किया जाए तो स्थिति और भी सुधर सकती है। बात अगर जागरूकता की करें तो लोग जागरूक जरूर हुए हैं इसलिए आज इसके प्रति काउंसलिंग करवाने वालों की संख्या बढ़ी है। पर यह संख्या शहरी क्षेत्र के और मध्यम व उच्च आय वर्ग के लोगों तक ही सीमित है। निम्न वर्ग के लोगों में अभी भी जानकारी का अभाव है। इसलिए भी इस वर्ग में एचआईवी पॉजीटिव लोगों की संख्या अधिक है। जबकि बहुत सी संस्थाएँ निम्न आय वर्ग के लोगों में इस बात के प्रति जागरूकता अभियान चला रही हैं। लोग कारण को जानने के बाद भी सावधानियाँ नहीं बरतते। जिन कारणों से एड्स होता है उससे बचने के बजाए अनदेखा कर जाते हैं। इसमें अधिकांश लोग असुरक्षित यौन संबंध और संक्रमित रक्त के कारण एड्स की चपेट में आते हैं।
सरकारी संस्थाएँ
एड्स के ख़िलाफ़ आज शहर में अनेक समाज सेवी और सरकारी संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। इनका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना, एड्स के साथ जी रहे लोगों को समाज में उचित स्थान दिलाना, उनका उपचार कराना आदि है। इन संस्थाओं में से कुछ हैं फेमेली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया, विश्वास, भारतीय ग्रामीण महिला संघ, मध्यप्रदेश वॉलेन्ट्री हेल्थ एसोसिएशन, ज़िला स्तरीय नेटवर्क, वर्ल्ड विजन आदि। फेमेली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया, इंदौर शाखा सेक्सुअलिटी एजुकेशन, काउंसलिंग, रिसर्च, ट्रेनिंग/थैरेपी (एसईसीआरटी) परियोजना के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का कार्य कर रही है। संस्था किशोर बालक-बालिकाओं एवं युवाओं को किशोरावस्था, एड्स आदि के बारे में जानकारी देकर जागरूक बनाने का कार्य कर रही है। जागरूकता अभियान के तहत स्कूल-कॉलेज तो चुने ही जाते हैं पर जो लोग स्कूल-कॉलेज नहीं जाते उनके लिए कम्युनिटी प्रोग्राम या नुक्कड़ नाटक कर समझाया जाता है। ब्रांच मैनेजर प्रतूल जैन बताते हैं एड्स की रोकथाम के लिए किए जा रहे प्रयास तब ही सफल होंगे जब सरकार, जनता और समाजसेवी संस्थाएँ मिलकर प्रयास करें।[2]
काका कालेलकर (जन्म: 1 दिसम्बर, 1885 - मृत्यु: 21 अगस्त, 1981)
पूरा नाम
दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर
अन्य नाम
काका साहब, आचार्य कालेलकर
जन्म
1 दिसम्बर, 1885
जन्म भूमि
सतारा, महाराष्ट्र
मृत्यु
21 अगस्त, 1981
मृत्यु स्थान
नई दिल्ली
नागरिकता
भारतीय
प्रसिद्धि
गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और लेखक
जेल यात्रा
गांधी जी के नेतृत्व में जितने भी आन्दोलन हुए, काका कालेलकर ने सब में भाग लिया और कुल मिलाकर 5 वर्ष क़ैद में बिताए।
विद्यालय
फ़र्ग्यूसन कॉलेज', पुणे
पुरस्कार-उपाधि
पद्म विभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार
भाषा
गुजराती, मराठी, हिन्दी और अंग्रेज़ी
काका कालेलकर (अंग्रेज़ी: Kaka Kalelkar, जन्म: 1 दिसम्बर, 1885 - मृत्यु: 21 अगस्त, 1981) भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और लेखक थे। काका कालेलकर देश की मुक्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष के पक्षपाती थे। 1915 ई. में गाँधी जी से मिलने के बाद ही इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन गाँधी जी के कार्यों को समर्पित कर दिया। गुजराती भाषा पर भी इनका अच्छा ज्ञान था। 1922 में ये गुजराती पत्र 'नवजीवन' के सम्पादक भी रहे थे।
जन्म और शिक्षा
काका कालेलकर का जन्म सतारा (महाराष्ट्र) में 1 दिसम्बर, 1885 ई. को हुआ था। उनका पूरा नाम 'दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर' था। उन्होंने 'फ़र्ग्यूसन कॉलेज', पुणे में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया। 1990 में वे बेलगांव के गणेश विद्यालय के प्रधानाध्यापक के रूप में बड़ौदा चले गए, परन्तु राजनीतिक कारणों से एक वर्ष बाद ही यह विद्यालय बन्द हो गया।
सशस्त्र संघर्ष के पक्षपाती
काका कालेलकर देश की पराधीनता से मुक्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष के पक्षपाती थे और इस दिशा में काम कर रहे युवकों के समर्थक थे। साथ ही सांसारिक मोह-माया से मुक्त होने की भावना भी उनके अन्दर थी। अत: विद्यालय के बन्द होने पर वे मोक्ष की खोज में हिमालय की ओर चल पड़े। उन्होंने तीन वर्ष तक देश के विभिन्न भागों की 2500 मील की पैदल यात्रा की। उन्होंने अनुभव किया कि देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करना ही सबसे उत्तम मार्ग है और इसके लिए नई पीढ़ी को तैयार करना चाहिए। कुछ दिन हरिद्वार और कुछ दिन हैदराबाद (सिंध) में अध्यापन करने के बाद वे शिक्षक के रूप में शांति निकेतन पहुँचे।
काका कालेलकर
गाँधीजी से भेंट
1915 में शांति निकेतन में काका कालेलकर की भेंट गांधी जी से हुई और उन्होंने अपना जीवन गांधी जी के कार्यों को समर्पित कर दिया। उनके राजनीतिक विचार भी बदल गये। वे साबरमती आश्रम के विद्यालय के प्राचार्य बने और बाद में उनके अनुभवों के आधार पर 'बेसिक शिक्षा' की योजना बनी। फिर वे 1928 से 1935 तक 'गुजरात विद्यापीठ' के कुलपति रहे। 1935 में काका साहब गांधी जी के साथ साबरमती से वर्धा चले गए और हिन्दी के प्रचार में लग गए।
इन्हें भी देखें: संयम की सीख -महात्मा गाँधी
सम्पादन तथा लेखन कार्य
गांधी जी के नेतृत्व में जितने भी आन्दोलन हुए, काका कालेलकर ने सब में भाग लिया और कुल मिलाकर 5 वर्ष क़ैद में बिताए। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद वे गुजराती पत्र 'नवजीवन' के सम्पादक भी रहे। मातृभाषा मराठी होने पर भी वे गुजराती के प्रसिद्ध लेखक माने गए। उन्होंने गुजराती, मराठी, हिन्दी और अंग्रेज़ी में विविध विषयों पर 30 से अधिक पुस्तकों की रचना की। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साहित्य का मराठी और गुजराती में अनुवाद भी किया।
गुजराती के प्रसिद्ध लेखक
मराठी-भाषी होने पर भी काकासाहेब ने मराठी से अधिक गुजराती और राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवा की है। शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, भाषा आदि के क्षेत्रों में उनका योगदान अनुपम है। वे सही मायने में विश्वकोश थे। राजनीति, समाजशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, अध्यात्म आदि कोई भी ऐसा विषय नहीं है जिस पर उन्होंने प्रामाणिक लेखन न किया हो। वे किसी बात का ज्ञान प्राप्त करने मात्र से संतुष्ट नहीं होते। उसके बारे में मौलिक दृष्टि से चित्रन करते हैं। उनकी स्मरण की क्षमता बड़ी अद्भुत है। स्थानों, व्यक्तियों, संस्थाओं के नाम उन्हें याद रहते हैं। काकासाहेब कलासक्त और सौंदर्यप्रेमी हैं। उनकी भव्य आकृति उनकी कलाशक्ति के दर्शन कराती है। उनके हर काम में सहज सुधरी कला होती है। उनके द्वारा निर्मित साहित्य प्रेरक विचारों का एक विशाल भंडार है। विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने इतना कार्य किया है कि वे एक संस्था बन गये थे। उनके प्रेरक और कलापूर्ण साहित्य के चुने हुए अंशों का अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं में होना चाहिए। बीसवीं शताब्दी के दो महापुरुषों – महात्मा गांधी और गुरुदेव टैगोर के निकट संपर्क में आये और उनसे प्रेरणा प्राप्त करने का अवसर काकासाहेब को प्राप्त हुआ था। उनके कार्य और चिंतन पर गांधी और टैगोर की छाप स्पष्ट रुप से लक्षित होती है।[1]
सम्मान एवं पुरस्कार
सम्मान में जारी भारतीय डाक टिकट
काका कालेलकर 1952 से 1964 तक संसद के सदस्य भी रहे। 1964 में उन्हें 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया। वे 'पिछड़ा वर्ग आयोग', 'बेसिक एजुकेशन बोर्ड', 'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा', 'गांधी विचार परिषद' के अध्यक्ष तथा 'गांधी स्मारक संग्रहालय' के निदेशक रहे। काका कालेलकर ने विश्व के अनेक देशों की यात्रा की और गांधीवादी विचारों का प्रचार किया। वे ग्रामीण और कुटीर उद्योगों के समर्थक थे। सामाजिक स्तर पर वे भेदभाव के विरोधी थे।
संपूर्ण गांधीसाहित्य के लिए नियुक्त परामर्शदायी समिति के काकासाहेब एक सदस्य रहे। 1949 में काकासाहेब ने गुजराती साहित्य परिषद के अधिवेशन की अध्यक्षता की। 1979 में 76वीं वर्षगांठ के अवसर पर अहमदाबाद में उन्हें गुजराती में कालेलकर-अध्ययन-ग्रंथ समर्पित कर सम्मानित किया गया। कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा 1965 में 81वीं वर्षगांठ पर ‘संस्कृति के परिव्राजक’ तथा 95वें जन्मदिन पर ‘समन्वय के साधक’ अभिनन्दन ग्रंथ अर्पित किये गये। सन् 1965 में ही भारतीय साहित्य अकादमी ने, राष्ट्रपति के हाथों, काकासाहेब को उनके ‘जीवन-व्यवस्था’ शीर्षक गुजराती लेख-संकलन पर रुपये पाँच हजार का पुरस्कार देकर सम्मानित किया था। स्वातंत्र्य के सेनानी, लोकशिक्षक, पंडित, देश के सांस्कृतिक दूत, साहित्य सेवक आदि सभी दृष्टियों से उनका व्यक्तित्व महान् है। सरदार पटेल विश्वविद्यालय, आणंद, गुजरात विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ ने उन्हें मानद् डी. लिट्. से और साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने ‘फ़ैलो’ से अलंकृत किया।[1]
निधन
आचार्य काकासाहेब कालेलकर का निधन 21 अगस्त, 1981 को नई दिल्ली में उनके ‘संनिधि’ आश्रम में हुआ।