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મારા આ બ્લોગમા આપ સૌનું હાર્દિક સ્વાગત છે.- ARYA PATEL

Tuesday, 7 November 2017

मैसूर युद्ध 

मैसूर युद्ध  



हैदर अली
Hyder Ali

1761 ई. में हैदर अली ने मैसूर में हिन्दू शासक के ऊपर नियंत्रण स्थापित कर लिया। निरक्षर होने के बाद भी हैदर की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता अद्वितीय थी। उसके फ़्राँसीसियों से अच्छे सम्बन्ध थे। हैदर अली की योग्यता, कूटनीतिक सूझबूझ एवं सैनिक कुशलता से मराठे, निज़ाम एवं अंग्रेज़ ईर्ष्या करते थे। हैदर अली ने अंग्रेज़ों से भी सहयोग माँगा था, परन्तु अंग्रेज़ इसके लिए तैयार नहीं हुए, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाती। भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थीं। अंग्रेज़ों और हैदर अली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान के बीच समय-समय पर युद्ध हुए। 32 वर्षों (1767 से 1799 ई.) के मध्य में ये युद्ध छेड़े गए थे।

युद्ध

भारत के इतिहास में चार मैसूर युद्ध लड़े गये हैं, जो इस प्रकार से हैं-

प्रथम युद्ध (1767 - 1769 ई.)

द्वितीय युद्ध (1780 - 1784 ई.)

तृतीय युद्ध (1790 - 1792 ई.)

चतुर्थ युद्ध (1799 ई.)

प्रथम युद्ध

मुख्य लेख : मैसूर युद्ध प्रथम

अप्रैल, 1967 में निज़ाम, मराठामराठे और अंग्रेज़अंग्रेज़ों की सेना ने मिलकर हैदर अली पर आक्रमण किया, परन्तु कुछ समय बाद ही निज़ाम हैदर अली की ओर आ गया। अब यह युद्ध अंग्रेज़ों और हैदर अली के मध्य लड़ा गया। अंग्रेज़ों की प्रारम्भिक सफलता के कारण निज़ाम पुनः अंग्रेज़ों की ओर चला गया। हैदर अली ने उत्साहपूर्वक लड़ते हुए मार्च, 1768 में मंगलौर और बम्बई पर पुनः अधिकार कर लिया। मार्च, 1769 ई. में उसकी सेनायें मद्रास तक जा पहुँची। अंग्रेज़ों ने विवशता में हैदर अली की शर्तों पर 4 अप्रैल, 1769 को मद्रास की संधि की।

द्वितीय युद्ध



टीपू सुल्तान
Tipu Sultan

मुख्य लेख : मैसूर युद्ध द्वितीय

अंग्रेज़ों ने 1769 ई. की संधि की शर्तो के अनुसार आचरण न किया और 1770 ई. में हैदर-अली को, समझौते के अनुसार उस समय सहायता न दी जब मराठों ने उस पर आक्रमण किया। अंग्रेज़ों के इस विश्वासघात से हैदर-अली को अत्यधिक क्षोभ हुआ था। उसका क्रोध उस समय और भी बढ़ गया, जब अंग्रेज़ों ने हैदर-अली की राज्य सीमाओं के अंतर्गत माही की फ्रांसीसी बस्तीपर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने मराठा और निज़ाम के साथ 1780 ई. में त्रिपक्षीय संधि कर ली जिससे द्वितीय मैसूर-युद्ध प्रारंभ हुआ।

तृतीय युद्ध

मुख्य लेख : मैसूर युद्ध तृतीय

तीसरा युद्ध 1790 ई. में शुरू हुआ था। जब गर्वनर-जनरल लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने टीपू का नाम कंपनी के मित्रों की सूची से हटा दिया था। तृतीय मैसूर युद्ध का कारण भी अंग्रेज़ों की दोहरी नीति थी। 1769 ई. में हैदर-अली और 1784 ई. में टीपू सुल्तान के साथ की गयी संधि की शर्तों के विरुद्ध अंग्रेज़ों ने 1788 ई. में निज़ाम को इस आशय का पत्र लिखा कि हम लोग टीपू सुल्तान से उन भूभागों को छीन लेने में आपकी सहायता करेंगे जो निज़ाम के राज्य के अंग रहे है। अंग्रेज़ों की इस विश्वासघाती नीति को देखकर टीपू सुल्तान के मन में उनके शत्रुतापूर्ण अभिप्राय के संबंध में कोई संशय न रहा। अत: 1789 ई. में अचानक ट्रावनकोर (त्रिवंकुर) पर आक्रमण कर दिया, और उस भू-भाग को तहस-नहस कर डाला ।

चतुर्थ युद्ध

मैसूर युद्ध के समय अंग्रेज़ गर्वनर-जनरल

युद्ध                   समय                        गर्वनर-जनरल

प्रथम मैसूर युद्ध  1767 - 1769 ई.     लॉर्ड वेरेल्स्ट

द्वितीय मैसूर युद्ध 1780 - 1784 ई.  लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स

तृतीय मैसूर युद्ध   1790 - 1792 ई.  लॉर्ड कॉर्नवॉलिस

चतुर्थ मैसूर युद्ध    1799 ई.              लॉर्ड वेलेजली

मुख्य लेख : मैसूर युद्ध चतुर्थ

चौथा युद्ध गर्वनर-जनरल लॉर्ड मॉर्निंग्टन (बाद में वेलेज़ली) ने इस बहाने से शुरू किया कि टीपू को फ़्रांसीसियों से सहायता मिल रही है। अल्पकालिक, परन्तु भयानक सिद्ध हुआ। इसका कारण टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेज़ों के आश्रित बन जाने के संधि प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना था, तत्कालीन गवर्नर- जनरल लॉर्ड वेलेज़ली को टीपू की ब्रिटिश- विरोधी गतिविधियों का पूर्ण विश्वास हो गया था। उसे पता चला कि 1792 ई. की पराजय के उपरांत टीपू ने फ़्रांसकुस्तुनतुनिया और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों के साथ इस अभ्रिप्राय से संधि का प्रयास किया था कि भारत से अंग्रेज़ों को निकाल दिया जाय।

टीपू की असफलता के कारण

टीपू सुल्तान की असफलता के निम्न महत्त्वपूर्ण कारण थे-

फ़्राँसीसी मित्रता और देशी राज्यों को मिलाकर संयुक्त मोर्चा बनाने के कार्य में टीपू असफल रहा।

इसके अलावा वह अपने पिता हैदर अली की भांति कूटनीतिज्ञ भी नहीं था।

टीपू सुल्तान निःसन्देह एक कुशल प्रशासक एवं योग्य सेनापति था। उसने 'आधुनिक कैलेण्डर' की शुरुआत की ओर सिक्का ढुलाई तथा नाप-तोप की नई प्रणाली का प्रयोग किया। उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम में 'स्वतन्त्रता का वृक्ष' लगवाया और साथ ही 'जैकोबिन क्लब' का सदस्य भी बना। उसने अपने को नागरिक टीपू पुकारा। 'टामस मुनरो' ने टीपू सुल्तान के बारें में लिखा है कि, "नवीनता की अविभ्रांत भावना तथा प्रत्येक वस्तु के स्वयं ही प्रसूत होने की रक्षा उसके चरित्र की मुख्य विशेषता थीं"।


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