बंग-भंग
सन् १९०५ में लार्ड कर्जन ने मुस्लिम बहुल वाले प्रान्त का सृजन करने के उद्देश्य से भारत के बंगाल को दो भागों में बाँट दिया। इतिहास में इसे बंगभंग के नाम से जाना जाता है। यह अंग्रेजों की "फूट डालो - राज करो" वाली नीति का ही एक अंग था। अत: इसके विरोध में १९०८ ई. में सम्पूर्ण देश में `बंग-भंग' आन्दोलन शुरु हो गया।[1]
अनुक्रम
पृष्ठभूमि
सन् 1903 में कांग्रेस का 19वाँ अधिवेशन मद्रास में हुआ था। उसी अवसर पर उसके सभापति श्री लालमोहन घोष ने अपने अभिभाषण में सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति की आलोचना करते हुए एक अखिल भारतीय मंचपर आसन्न वंगभंग की सूचना दी। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का एक षड्यंत्र चल रहा है।
काँग्रेस के अगले अधिवेशन में सभापति पद से बोलते हुए सर हेनरी कॉटन ने भी यह कहा कि यदि यह बहाना है कि इतने बड़े प्रांत को एक राज्यपाल सँभाल नहीं सकता तो या तो बंबई और मद्रास की तरह बंगाल का शासनसूत्र सपरिषद् राज्यपाल के सिपुर्द हो या बँगला भाषियों को अलग करके एक प्रांत बनाया जाए। उन दिनों बंगाल प्रांत में बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे।
पर ब्रिटिश सरकार ने न तो कांग्रेस की परवाह की, न जनमत की। उस समय के वायसराय और गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन ने लैंड होल्डर्स एसोसिएशन या जमींदार सभा में लोगों को यह समझाने की चेष्टा की कि वंगभंग से लाभ ही होगा। वह स्वयं पूर्व बंगाल में भी गए, पर मुट्ठी भर मुसलमानों के अतिरिक्त किसी ने इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया। मुसलमानों में प्रतिष्ठित ढाका के तत्कालीन नवाब ने भी प्रथम आवेश में इसका विरोध किया था।
बंगभंग के प्रस्ताव पर भारत सचिव का ठप्पा
प्रबल सार्वजनिक विरोध के बावजूद 20 जुलाई 1905 को वंगभंग के प्रस्ताव पर भारत सचिव का ठप्पा लग गया। राजशाही, ढाका तथा चटगाँव कमिश्नरियों को आसाम के साथ मिलाकर एक प्रांत बनाया गया, जिसका नाम पूर्ववंग और आसाम रखा गया और बाकी हिस्सा यानी प्रेसीडेन्सी और वर्धमान कमिश्नरियाँ बिहार, उड़ और इसका कोई आधार था।
इस अवसर पर हिंदुओं और मुसलमानों को यह कहकर लड़ाने की चेष्टा की गई कि इस विभाजन से मुसलमानों को फायदा है क्योंकि पूर्ववंग और आसाम में उन्हीं का बहुमत रहेगा। ढाका के नवाब ने पहले विरोध किया था, पर जब वंगभंग हो गया तो वह उसके पक्ष में हो गए। सर जोजेफ बैमफील्ड फुलर (Joseph Bamfylde Fuller) पूर्ववंग और आसाम के नए लेफ्टिनैंट गवर्नर बने। कहा जाता है, उन्होंने कई जगह खुल्लमखुल्ला कहा कि हिंदू और मुसलमान उनकी दो बीबियाँ हैं, इनमें से मुसलमान उनकी चहेती हैं। इस कथन का आशय स्पष्ट था।
वंगभंग का उद्देश्य प्रशासन की सुविधा उत्पन्न करना नहीं था, जैसा दावा किया गया था, बल्कि इसके दो स्पष्ट उद्देश्य थे, एक हिंदू मुसलमान को लड़ाना और दूसरे नवजाग्रत बंगाल को चोट पहुंचाना। यदि गहराई से देखा जाए तो यहीं से पाकिस्तान का बीजारोपण हुआ। मुस्लिम लीग के 1906 के अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुए, उनमें से एक यह भी था कि वंगभंग मुसलमानों के लिए अच्छा है और जो लोग इसके विरुद्ध आंदोलन करते हैं, वे गलत काम करते हैं और वे मुसलमानों को नुक्सान पहुंचाते हैं। बाद को चलकर लीग के 1908 के अधिवेशन में भी यह प्रस्ताव पारित हुआ कि कांग्रेस ने वंगभंग के विरोध का जो प्रस्ताव रखा है, वह स्वीकृति के योग्य नहीं।
बंगभंग के विरुद्ध आन्दोलन
बंगभंग के विरुद्ध बंगाल के बाहर बहुत भारी आंदोलन हुआ। इस आंदोलन में देश के प्रसिद्ध कवियों और साहित्यकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन ने बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के वंदे मातरम् गीत को नई बुलंदियाँ प्रदान की। उस समय बंगाल को बाँट देने का अंग्रेजी कुचक्र तो टूटा ही, सारे देश में और विदेशों में इसे असाधारण ख्याति मिली। जर्मन और कनाडा जैसे देश भी इससे प्रभावित हुए। कामागाटामारू नामक जहाज के झंडे पर 'वन्दे मातरम्' अंकित किया गया था। तब से सन् १९३० के नमक सत्याग्रह और सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलन तक सभी सम्प्रदायों से उभरे युवा स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों का सबसे प्रेरक और प्रिय नारा रहा 'वन्दे मातरम्'। भारत वासियों की अन्तर्भावना इसे नैतिक आधार पर भली प्रकार स्वीकार कर चुकी थी।[2]
बंगभंग की समाप्ति
सन् 1911 के 12 दिसम्बर को दिल्ली में एक दरबार हुआ, जिसमें सम्राट् पंचम जार्ज, सम्राज्ञी मेरी तथा भारत सचिव लार्ड क्रू आए थे। इस दरबार के अवसर पर एक राजकीय घोषणा-द्वारा पश्चिम और पूर्व वंग के बँगला भाषी इलाकों को एक प्रांत में लाने का आदेश किया गया। राजधानी कलकत्ते से दिल्ली में हटा दी गई। मुस्लिम लीग का 1912 का वार्षिक अधिवेशन नवाब सलीमुल्ला खाँ के सभापतित्व में ढाके में हुआ। इसमें नवाब ने अपने अभिभाषण में हिंदुओं की शोरिशों और सरकार की बेमुरव्वतियों का बड़ा जोरदार चित्र खींचा और वंगभंग रद्द करने का विरोध प्रकट किया।
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