सातवाहन वंश
सातवाहन वंश (60 ई.पू. से 240 ई.) भारत का प्राचीन राजवंश था, जिसने केन्द्रीय दक्षिण भारत पर शासन किया था। भारतीय इतिहास में यह राजवंश 'आन्ध्र वंश' के नाम से भी विख्यात है। सातवाहन वंश का प्रारम्भिक राजा सिमुक था। इस वंश के राजाओं ने विदेशी आक्रमणकारियों से जमकर संघर्ष किया था। इन राजाओं ने शक आक्रांताओं को सहजता से भारत में पैर नहीं जमाने दिये।
इतिहास
भारतीय परिवार, जो पुराणों (प्राचीन धार्मिक तथा किंवदंतियों का साहित्य) पर आधारित कुछ व्याख्याओं के अनुसार आंध्र जाति (जनजाति) का था और 'दक्षिणापथ' अर्थात दक्षिणी क्षेत्र में साम्राज्य की स्थापना करने वाला पहला दक्कनी वंश था। इस वंश का आरंभ 'सिभुक' अथवा 'सिंधुक' नामक व्यक्ति ने दक्षिण में कृष्णा और गोदावरी नदियों की घाटी में किया था। इस वश को 'आंध्र राजवंश' के नाम भी जाना जाता है। सातवाहन वंश के अनेक प्रतापी सम्राटों ने विदेशी शक आक्रान्ताओं के विरुद्ध भी अनुपम सफलता प्राप्त की थी। दक्षिणापथ के इन राजाओं का वृत्तान्त न केवल उनके सिक्कों और शिलालेखों से जाना जाता है, अपितु अनेक ऐसे साहित्यिक ग्रंथ भी उपलब्ध हैं, जिनसे इस राजवंश के कतिपय राजाओं के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं।
शासक राजा
सातवाहन वंश के राजाओं के नाम निम्नलिखित हैं-
सिमुक
सातकर्णि
गौतमीपुत्र सातकर्णि
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि
कृष्ण द्वितीय सातवाहन
राजा हाल
महेन्द्र सातकर्णि
कुन्तल सातकर्णि
सिमुक
सिमुक भारत के इतिहास में प्रसिद्ध 'सातवाहन राजवंश' का संस्थापक था। पुराणों के अनुसार सिमुक ने कण्व वंश के अन्तिम राजा सुशर्मा को मार कर मगध के राजसिंहासन पर अपना अधिकार स्थापित किया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सातवाहन वंश के अन्यतम राजा ने कण्व वंश का अन्त कर मगध को अपने साम्राज्य के अंतर्गत किया था।
हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के अनुसार कलिंग का खारवेल सातवाहन वंश के सातकर्णि का समकालीन था, और खारवेल के समय को पहली सदी ईसवी पूर्व के पश्चात कदापि नहीं रखा जा सकता।
कण्व वंश का अन्त 28 ईसवी पूर्व में हुआ। यदि सिमुक के शासन का प्रारम्भ उस समय में हुआ, तो उसके पर्याप्त समय बाद का सातवाहन राजा सातर्णि खारवेल का समकालीन कैसे हो सकता है। यदि सातकर्णि खारवेल का समकालीन था तो राजा सिमुक का काल उससे पूर्व ही होना चाहिए। पौराणिक अनुश्रुति में कण्व वंश का अन्त करने वाले सातवाहन राजा का नाम देने में अवश्य ही भूल हुई है। सिमुक का शासन काल 23 वर्ष का था।
210 ई. पू. में सिमुक ने मौर्य शासनतंत्र के विरुद्ध विद्रोह किया और प्रतिष्ठान को राजधानी बनाकर 187 ई. पू. तक स्वतंत्र रूप से शासन किया।
जैन गाथाओं के अनुसार सिमुक ने अनेक बौद्ध और जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था।
सिमुक के बाद उसका भाई कृष्ण या कन्ह सातवाहन राज्य का स्वामी बना।
सिमुक का पुत्र सातकर्णि था, जो सम्भवतः अपने पिता की मृत्यु के समय तक वयस्क नहीं हुआ था। इसी कारण सिमुक की मृत्यु के अनन्तर उसका भाई कृष्ण राजगद्दी पर बैठा। पुराणों के अनुसार उसने 18 वर्ष तक राज्य किया। कृष्ण ने भी अपने भाई के समान विजय की प्रक्रिया को जारी रखा।
सातकर्णि
कृष्ण के बाद उसका भतीजा (सिमुक का पुत्र) प्रतिष्ठान के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ।
उसने सातवाहन राज्य का बहुत विस्तार किया।
उसका विवाह नायनिका या नागरिका नाम की कुमारी के साथ हुआ था, जो एक बड़े महारथी सरदार की दुहिता थी।
इस विवाह के कारण सातकर्णि की शक्ति बहुत बढ़ गई, क्योंकि एक शक्तिशाली महारथी सरदार की सहायता उसे प्राप्त हो गई।
सातकर्णि के सिक्कों पर उसके श्वसुर अंगीयकुलीन महारथी त्रणकयिरो का नाम भी अंकित है।
शिलालेखों में उसे 'दक्षिणापथ' और 'अप्रतिहतचक्र' विशेषणों से विभूषित किया गया है।
अपने राज्य का विस्तार कर इस प्रतापी राजा ने राजसूय यज्ञ किया, और दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था, क्योंकि सातकर्णी का शासनकाल मौर्य वंश के ह्रास काल में था, अतः स्वाभाविक रूप से उसने अनेक ऐसे प्रदेशों को जीत कर अपने अधीन किया होगा, जो कि पहले मौर्य साम्राज्य के अधीन थे। अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान इन विजयों के उपलक्ष्य में ही किया गया होगा।
सातकर्णी के राज्य में भी प्राचीन वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हो रहा था।
शिलालेखों में इस राजा के द्वारा किए गए अन्य भी अनेक यज्ञों का उल्लेख है। इनमें जो दक्षिणा सातकर्णि ने ब्राह्मण पुरोहितों में प्रदान की, उसमें अन्य वस्तुओं के साथ 47,200 गौओं, 10 हाथियों, 1000 घोड़ों, 1 रथ और 68,000 कार्षापणों का भी दान किया गया था।
इसमें सन्देह नहीं कि सातकर्णी एक प्रबल और शक्ति सम्पन्न राजा था।
कलिंगराज खारवेल ने विजय यात्रा करते हुए उसके विरुद्ध शस्त्र नहीं उठाया था, यद्यपि हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के अनुसार वह सातकर्णी की उपेक्षा दूर-दूर तक आक्रमण कर सकने में समर्थ हो गया था।
सातकर्णी देर तक सातवाहन राज्य का संचालन नहीं कर सका। सम्भवतः एक युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई थी, और उसका शासन काल केवल दस वर्ष (172 से 162 ई. पू. के लगभग) तक रहा था।
अभी उसके पुत्र वयस्क नहीं हुए थे। अतः उसकी मृत्यु के अनन्तर रानी नायनिका ने शासन-सूत्र का संचालन किया।
पुराणों में सातवाहन राजाओं को आन्ध्र और आन्ध्रभृत्य भी कहा गया है। इसका कारण इन राजाओं का या तो आन्ध्र की जाति का होना है, और या यह भी सम्भव है कि इनके पूर्वज पहले किसी आन्ध्र राजा की सेवा में रहे हों।
इनकी शक्ति का केन्द्र आन्ध्र में न होकर महाराष्ट्र के प्रदेश में था।
पुराणों में सिमुक या सिन्धुक को आन्ध्रजातीय कहा गया है। इसीलिए इस वंश को आन्ध्र-सातवाहन की संज्ञा दी जाती है।
गौतमीपुत्र सातकर्णि
राजा सातकर्णी के उत्तराधिकारियों के केवल नाम ही पुराणों द्वारा ज्ञात होते हैं।
ये नाम पूर्णोत्संग (शासन काल 18 वर्ष), स्कन्धस्तम्भि (18 वर्ष), मेघस्वाति (18 वर्ष) और गौतमीपुत्र सातकर्णि (56 वर्ष) हैं।
इनमें गौतमीपुत्र सातकर्णी के सम्बन्ध में उसके शिलालेखों से बहुत कुछ परिचय प्राप्त होता है। यह प्रसिद्ध शकमहाक्षत्रप 'नहपान' का समकालीन था, और इसने समीपवर्ती प्रदेशों से शक शासन का अन्त किया था। नासिक ज़िले के 'जोगलथम्बी' नामक गाँव से सन् 1906 ई. में 13,250 सिक्कों का एक ढेर प्राप्त हुआ था। ये सब सिक्के एक शक क्षत्रप नहपान के हैं। इनमें से लगभग दो तिहाई सिक्कों पर गौतमीपुत्र का नाम भी अंकित है। जिससे यह सूचित होता है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि ने नहपान को परास्त कर उसके सिक्कों पर अपनी छाप लगवाई थी। इसमें सन्देह नहीं, कि शकों के उत्कर्ष के कारण पश्चिमी भारत में सातवाहन राज्य की बहुत क्षीण हो गई थी, और बाद में गौतमीपुत्र सातकर्णि ने अपने वंश की शक्ति और गौरव का पुनरुद्धार किया।
गौतमीपुत्र सातकर्णि की माता का नाम 'गौतमी बालश्री' था। उसने नासिक में त्रिरश्मि पर एक गुहा दान की थी, जिसकी दीवार पर एक प्रशस्ति उत्कीर्ण है। इस प्रशस्ति द्वारा गौतमी बालश्री के प्रतापी पुत्र के सम्बन्ध में बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती है। उसमें राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि के जो विशेषण दिए हैं, उसमें से निम्नलिखित विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं -
असिक असक मुलक सुरठ कुकुर अपरान्त अनूप विदभ आकर (और) अवन्ति के राजा, बिझ छवत पारिजात सह्य कण्हगिरि मच सिरिटन मलय महिद सेटगिरि चकोर पर्वतों के पति, जिसके शासन को सब राजाओं का मंडल स्वीकार करता था, क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन करने वाले, शक यवन पह्लवों के निषूदक, सातवाहन कुल के यश के प्रतिष्ठापक, सब मंडलों से अभिवादितचरण, अनेक समरों में शत्रुसंघ को जीतने वाले, एकशूर, एक ब्राह्मण, शत्रुजनों के लिए दुर्घर्ष सुन्दरपुर के स्वामी आदि।
इस लेख से स्पष्ट है कि असक (अश्मक) मूलक (मूलक, राजधानी प्रतिष्ठान), सुरठ (सौराष्ट्र), कुकुर (काठियावाड़ के समीप एक प्राचीन गण-जनपद), उपरान्त (कोंकण), अनूप (नर्मदा की घाटी का प्रदेश), विदर्भ (विदर्भ, बरार), आकर (विदिशा का प्रदेश) और अवन्ति गौतमीपुत्र सातकर्णी के साम्राज्य के अंतर्गत थे। जिन पर्वतों का वह स्वामी था, वे भी उसके साम्राज्य के विस्तार को सूचित करते हैं। विझ (विन्ध्य) छवत (ऋक्षवत् या सतपुड़ा), पारिजात (पश्चिमी विन्ध्याचल), सह्य (सहाद्रि), कण्हगिरि (कान्हेरी या कृष्णगिरि), सिरिटान (श्रीपर्वत), मलय (मलयाद्रि), महिन्द्र (महेन्द्र पर्वत) और चकोर (पुराणों में श्रीपर्वत की अन्यतम पर्वतमाला) उसके राज्य के विस्तार पर अच्छा प्रकाश डालते हैं।
इस प्रशस्ति से यह निश्चित हो जाता है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि सच्चे अर्थों में दक्षिणापथपति था, और काठियावाड़, महाराष्ट्र और अवन्ति के प्रदेश अवश्य ही उसके साम्राज्य के अंतर्गत थे।
गौतमीपुत्र सातकर्णि जो इतने विशाल साम्राज्य का निर्माण कर सका था, उसका प्रधान कारण 'शक यवन पल्हवों' की पराजय थी। शक, यवन और पार्थियन लोगों ने बाहर से आकर भारत में जो अनेक राज्य क़ायम कर लिए थे, उनके साथ सातकर्णि ने घोर युद्ध किए, और उन्हें परास्त कर सातवाहन कुल की शक्ति और गौरव को प्रतिष्ठापित किया। विदेशी शकों की भारत में बढ़ती हुई शक्ति का दमन करना सातकर्णि का ही कार्य था। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि जिन अनेक प्रदेशों को सातकर्णि ने अपने अधीन किया था, वे पहले क्षहरात कुल के शक क्षत्रप नहपान के अधीन थे। शकों को परास्त करके ही सातकर्णि ने इन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था।
गौतमीपुत्र सातकर्णि के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले अनेक शिलालेख व सिक्के खोज द्वारा प्राप्त हुए हैं। इस प्रतापी राजा से सम्बन्ध रखने वाली एक जैन अनुश्रुति का उल्लेख करना भी इस सम्बन्ध में उपयोगी होगा। जैन ग्रंथ 'आवश्यक सूत्र' पर 'भद्रबाहु स्वामी'-विरचित 'निर्युक्ति' नामक टीका में एक पुरानी गाथी दी गई है, जिसके अनुसार 'भरुकच्छ' का राजा नहवाण कोष का बड़ा धनी था। दूसरी ओर प्रतिष्ठान का राजा सालवाहन सेना का धनी था। सालवाहन ने नहवाण पर चढ़ाई की, किन्तु दो वर्ष तक उसकी पुरी को घेर रहने पर भी वह उसे जीत नहीं सका। भरुकच्छ में कोष की कमी नहीं थी। अतः सालवाहन की सेना का घेरा उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। अब सालवाहन ने कूटनीति का आश्रय लिया। उसने अपने एक अमात्य से रुष्ट होने का नाटक कर उसे निकाल दिया। यह अमात्य भरुकच्छ गया और शीघ्र ही नहवाण का विश्वासपात्र बन गया। उसकी प्रेरणा से नहवाण ने अपना बहुत सा धन देवमन्दिर, तालाब, बावड़ी आदि बनवाने तथा दान-पुण्य में व्यय कर दिया। अब जब फिर सालवाहन ने भरुकच्छ पर चढ़ाई की, तो नहवाण का कोष ख़ाली था। वह परास्त हो गया, और भरुकच्छ भी सालवाहन के साम्राज्य में शामिल हो गया। शक क्षत्रप नहवाण (नहपान) के दान-पुण्य का कुछ परिचय उसके जामाता उषाउदात के लेखों से मिल सकता है।
'कालकाचार्य' कथानक के अनुसार जिस राजा 'विक्रमादित्य' ने शकों का संहार किया था, वह प्रतिष्ठान का राजा था। सालवाहन या सातवाहन वंश की राजधानी भी प्रतिष्ठान ही थी। इस बात को दृष्टि में रखकर श्री जायसवाल व अन्य अनेक ऐतिहासिकों ने यह स्थापना की है, कि भारत की दन्त-कथाओं और प्राचीन साहित्य का 'शकारि विक्रमादित्य' और सातवाहनवंशी प्रतापी राजा 'गौतमीपुत्र सातकर्णि' एक ही थे, और इस शक निषुदक राजा का शासन काल 99 ई. पू. से 44 ई. पू. तक था।
पुराणों के अनुसार इसने 56 साल और जैन अनुश्रुति के अनुसार 55 साल तक राज्य किया था। यदि सातवाहन वंश के प्रथम राजा का शासन काल 210 ई. पू. के लगभग माना जाए तो पुराणों की वंशतालिका के अनुसार सातकर्णि का शासन काल समय यही बनता है। विक्रमी संवत का प्रारम्भ 57 ई. पू. में होता है। यह संवत शकों की पराजय सदृश महत्त्वपूर्ण घटना की स्मृति में ही प्रारम्भ हुआ था, और अनुश्रुति के अनुसार जिस राजा विक्रमादित्य के साथ इसका सम्बन्ध है, वह यदि गौतमीपुत्र सातकर्णि ही हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। पर इससे यह नहीं समझना चाहिए, कि विक्रम संवत का प्रारम्भ गौतमीपुत्र सातकर्णि द्वारा किया गया था। इस संवत का प्रारम्भ मालवगण की स्थिति से हुआ माना जाता है।
शक आक्रान्ताओं ने जिस प्रकार सातवाहन के गौरव को क्षीण किया था, वैसे ही गणराज्यों को भी उन्होंने पराभूत किया था। शकों की शक्ति के क्षीण होने पर भारत के प्राचीन गणराज्यों का पुनरुत्थान हुआ। शकों की पराजय की श्रेय केवल सातवाहनीवंशी सातकर्णि को ही नहीं है। मालवगण के वीर योद्धाओं का भी इस सम्बन्ध में बहुत कर्तृत्व था। उनके गण की पुनःस्थिति से एक नए संवत का प्रारम्भ हुआ, जो बाद में विक्रम-संवत कहलाया। पर जायसवाल जी की यह स्थापना भी बड़े महत्त्व की है, कि गौतमीपुत्र सातकर्णि का ही अन्य नाम या उपनाम विक्रमादित्य भी था, और वही भारतीय अनुश्रुति का 'शकारि या शकनिषुदक विक्रमादित्य' था। पर यह मत पूर्णतया निर्विवाद नहीं है। सातकर्णि के काल के सम्बन्ध में भी ऐतिहासिकों में मतभेद है। अनेक इतिहासकार उसे दूसरी ई. पू. का मानते हैं।
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि सातवाहन वंश के प्रतापी राजाओं में से एक था। वह अपने पिता गौतमीपुत्र सातकर्णि के बाद विशाल सातवाहन साम्राज्य का स्वामी बना था। उसका शासन काल 44 ई. पू. के लगभग शुरू हुआ था। पुराणों में उसका शासन काल 36 वर्ष बताया गया है। उसके समय में सातवाहन राज्य की और भी वृद्ध हुई। उसने पूर्व और दक्षिण में आन्ध्र तथा चोल देशों की विजय की।
सुदूर दक्षिण में अनेक स्थानों पर वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि के सिक्के उपलब्ध हुए हैं। चोल-मण्डल के तट से पुलुमावि के जो सिक्के मिले हैं, उन पर दो मस्तूल वाले जहाज़ का चित्र बना है। इससे सूचित होता है कि सुदूर दक्षिण में जारी करने के लिए जो सिक्के उसने मंगवाए थे, वे उसकी सामुद्रिक शक्ति को भी सूचित करते थे।
आन्ध्र और चोल के समुद्र तट पर अधिकार हो जाने के कारण सातवाहन राजाओं की सामुद्रिक शक्ति भी बहुत बढ़ गई थी और इसीलिए जहाज़ के चित्र वाले ये सिक्के प्रचलित किए गए थे।
इस युग में भारत के निवासी समुद्र को पार कर अपने उपनिवेश स्थापित करने में तत्पर थे और पूर्वी एशिया के अनेक क्षेत्रों में भारतीय बस्तियों का सूत्रपात हो रहा था।
पुराणों के अनुसार अन्तिम कण्व राजा सुशर्मा को मारकर सातवाहन वंश के राजा सिमुक ने मगध पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था, जिसे पुराणों में 'आन्ध्र वंश' कहा गया है।
कण्व वंश के शासन का अन्त सिमुक के द्वारा नहीं हुआ था। कण्व वंशी सुशर्मा का शासन काल 38 से 28 ई. पू. तक था। सातवाहन वंश के तिथिक्रम के अनुसार उस काल में सातवाहन वंश का राजा वासिष्ठी पुत्र श्री पुलुमावि ही थी। अतः कण्व वंश का अन्त कर मगध को अपनी अधीनता में लाने वाला सातवाहन राजा पुलुमावि ही होना चाहिए, न कि सिमुक।
इसमें सन्देह नहीं कि आन्ध्र या सातवाहन साम्राज्य में मगध भी सम्मिलित हो गया था और उसके राजा केवल दक्षिणापथपति न रहकर उत्तरापथ के भी स्वामी बन गए थे।
गौतमीपुत्र के समय सातवाहन वंश के जिस उत्कर्ष का प्रारम्भ हुआ था, अब उसके पुत्र पुलुमावि के समय में वह उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया। किसी समय जो स्थिति प्रतापी मौर्य व शुंग सम्राटों की थी, वही अब सातवाहन सम्राटों की हो गई थी।
कृष्ण द्वितीय सातवाहन
वासिष्ठीपुत्र श्रीपुलुमावि के बाद कृष्ण द्वितीय सातवाहन साम्राज्य का स्वामी बना।
इसने कुल 24 वर्ष तक (8 ई. पू. से 16 ई. तक) राज्य किया।
उसके बाद हाल राजा हुआ।
राजा हाल
वासिष्ठीपुत्र श्रीपुलुमावि के बाद कृष्ण द्वितीयसातवाहन साम्राज्य का स्वामी बना।
इसने कुल 24 वर्ष तक (8 ई. पू. से 16 ई. तक) राज्य किया। उसके बाद हाल राजा हुआ।
प्राकृत भाषा के साहित्य में इस राजा हाल का बड़ा महत्त्व है।
यह प्राकृत भाषा का उत्कृष्ट कवि था, और अनेक कवि व लेखक उसके आश्रय में रहते थे।
हाल की लिखी हुई 'गाथा सप्तशती' प्राकृत भाषा की एक प्रसिद्ध पुस्तक है।
राजा हाल का दरबार साहित्य और संस्कृति का बड़ा आश्रयस्थान था।
उसके संरक्षण और प्रोत्साहन से प्राकृत साहित्य की बड़ी उन्नति हुई है।
महेन्द्र सातकर्णि
राजा हाल के बाद क्रमशः पत्तलक, पुरिकसेन, स्वाति और स्कंदस्याति सातवाहन साम्राज्य के राजा हुए। इन चारों का शासन काल कुल 51 वर्ष था। राजा हाल ने 16 ई. से शुरू कर 21 ई. तक पाँच साल राज्य किया था।
स्कंदस्याति के शासन का अन्त 72 ई. में हुआ। पर इतना निश्चित है, कि इनके समय में सातवाहन साम्राज्य अक्षुण्ण रूप में बना रहा। स्कंदस्याति के बाद महेन्द्र सातकर्णि राजा बना। *'परिप्लस आफ़ एरिथियन सी' के ग्रीक लेखक ने भी इसी महेन्द्र को 'मंबर' के नाम से सूचित किया है।
प्राचीन पाश्चात्य संसार के इस भौगोलिक यात्रा-ग्रंथ में भरुकच्छ के बन्दरगाह से शुरू करके 'मंबर' द्वारा शासित 'आर्यदेश' का उल्लेख मिलता है।
कुन्तल सातकर्णि
कुन्तल सातकर्णि (74 ई. से 83 ई. तक) महेन्द्र सातकर्णि के बाद राजा बना।
इसके समय में फिर विदेशियों के आक्रमण भारत में प्रारम्भ हो गए।
जिन युइशि लोगों के आक्रमणों से शक लोग सीर नदी की घाटी के अपने पुराने निवास-स्थान को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए विवश हुए थे, वे ही कालान्तर में हिन्दुकुश के पश्चिम में प्राचीन कम्बोज जनपद में बस गए थे। वहाँ के यवन निवासियों के सम्पर्क से युइशि लोग भी धीरे-धीरे सभ्य हो गए थे, और उन्नति के मार्ग पर बढ़ने लगे थे।
जिस समय राजा वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि ने कण्व वंश का अन्त कर मगध को विजय किया, लगभग उसी समय इन युइशियों में एक वीर पुरुष का उत्कर्ष हुआ, जिसका नाम कुषाण था। इस समय तक युइशियों के पाँच छोटे-छोटे जनपद थे, कुषाण ने इन सब को जीतकर एक सूत्र में संगठित किया और एक शक्तिशाली युइशि राज्य की नींव डाली।
सातवाहन साम्राज्य का क्षय और कुषाणों का उत्कर्ष का आरम्भ हुआ। विम स्वयं हिन्दुकुश के उत्तर-पश्चिम में कम्बोज देश में रहता था।
भारत के जीते हुए प्रदेश में उसके क्षत्रप राज्य करते थे।
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Monday, 6 November 2017
☞ सातवाहन वंश (60 ई.पू. से 240 ई.)
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