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Tuesday, 26 December 2017

जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर जन्म 14 फ़रवरी, सन् 1483 ई. मृत्यु तिथि 26 दिसम्बर, सन् 1530 ई.

बाबर



पूरा नाम

जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर

अन्य नाम

मुग़ल शाह, अल-सुल्तानु इ आज़म वा इ हकाम, पादशाह-ए-ग़ाज़ी

जन्म

14 फ़रवरी, सन् 1483 ई.

जन्म भूमि

अन्दीना (फ़रग़ना राज्य की राजधानी)

मृत्यु तिथि

26 दिसम्बर, सन् 1530 ई.

मृत्यु स्थान

आगरा

पिता/माता

उमर शेख़ मिर्ज़ा, क़ुतलुगनिग़ार ख़ानम (यूनुस की पुत्री)

संतान

पुत्र- हुमायूँकामरानअस्करीहिन्दाल, पुत्री- गुलबदन बेगम

उपाधि

ग़ाज़ी (खानवा के युद्ध में विजय के बाद)

शासन काल

सन 1526 से 1530 ई.

शा. अवधि

4 वर्ष

राज्याभिषेक

8 जून, सन् 494 ई. [1]

युद्ध

पानीपत का प्रथम युद्ध[2], खानवा का युद्ध[3], चंदेरी का युद्ध[4]घाघरा का युद्ध[5]

निर्माण

क़ाबुली बाग़ मस्जिद,[6], जामी मस्जिद [7], आगरा की मस्जिद [8], नूर अफ़ग़ान[9], बाबरी मस्जिद [10]

उत्तराधिकारी

हुमायूँ

राजघराना

चग़ताई वंश

वंश

तैमूर [11] और चंग़ेज़ ख़ाँ का वंश [12]

मक़बरा

क़ाबुल

भारत पर आक्रमण

बाजौर एवं भीरा आक्रमण 1518 से 1519 ई., पेशावर आक्रमण 1519 ई., स्यालकोट, भीरा आक्रमण 1520 ई., सुल्तानपुर, लाहौर, दीपालपुर आक्रमण 1524 ई.

रचनाऐं

बाबरनामा या तुज़ुक़-ए-बाबरी, दीवान [13], रिसाल-ए-उसज [14], मुबइयान [15]

1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में दिल्ली सल्तनत के अंतिम वंश (लोदी वंश) के सुल्तान इब्राहीम लोदी की पराजय के साथ ही भारत में मुग़ल वंश की स्थापना हो गई। इस वंश का संस्थापक "ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर" था। बाबर का पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा', 'फ़रग़ना' का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्य का वास्तविक अधिकारी बना। पारिवारिक कठिनाईयों के कारण वह मध्य एशिया के अपने पैतृक राज्य पर शासन नहीं कर सका। उसने केवल 22 वर्ष की आयु में क़ाबुल पर अधिकार कर अफ़ग़ानिस्तान में राज्य क़ायम किया था। वह 22 वर्ष तक क़ाबुल का शासक रहा। उस काल में उसने अपने पूर्वजों के राज्य को वापिस पाने की कई बार कोशिश की, पर सफल नहीं हो सका।

जन्म एवं अभिषेक

14 फ़रवरी, 1483 ई. को फ़रग़ना में 'ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर' का जन्म हुआ। बाबर अपने पिता की ओर से तैमूर का पाँचवा एवं माता की ओर से चंगेज़ ख़ाँ (मंगोल नेता) का चौदहवाँ वंशज था। उसका परिवार तुर्की जाति के 'चग़ताई वंश' के अन्तर्गत आता था। बाबर अपने पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा' की मृत्यु के बाद 11 वर्ष की आयु में शासक बना। उसने अपना राज्याभिषेक अपनी दादी ‘ऐसान दौलत बेगम’ के सहयोग से करवाया। बाबर ने अपने फ़रग़ना के शासन काल में 1501 ई. में समरकन्द पर अधिकार किया, जो मात्र आठ महीने तक ही उसके क़ब्ज़े में रहा। 1504 ई. में क़ाबुल विजय के उपरांत बाबर ने अपने पूर्वजों द्वारा धारण की गई उपाधि ‘मिर्ज़ा’ का त्याग कर नई उपाधि ‘पादशाह’ धारण की।

बाबर की भारत विजय

बाबर का भारत के विरुद्व किया गया प्रथम अभियान 1519 ई. में 'युसूफजाई' जाति के विरुद्ध था। इस अभियान में बाबर ने ‘बाजौर’ और ‘भेरा’ को अपने अधिकार में किया। यह बाबर का प्रथम भारतीय अभियान था, जिसमें उसने तोपखाने का प्रयोग किया था। 1519 ई. के अपने दूसरे अभियान में बाबर ने ‘बाजौर’ और ‘भेरा’ को पुनः जीता साथ ही ‘स्यालकोट’ एवं ‘सैय्यदपुर’ को भी अपने अधिकार में कर लिया। 1524 ई. के चौथे अभियान के अन्तर्गत इब्राहीम लोदी एवं दौलत ख़ाँ लोदी के मध्य मतभेद हो जाने के कारण दौलत ख़ाँ, जो उस समय लाहौर का गवर्नर था, ने पुत्र दिलावर ख़ाँ एवं आलम ख़ाँ (बहलोल ख़ाँ का पुत्र) को बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित करने के लिए भेजा। सम्भवतः इसी समय राणा सांगा ने भी बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए निमत्रंण भेजा था।

बाबर को भारत आमंत्रण के कारण

बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित करने के पीछे सम्भवतः कुछ कारण इस प्रकार थे-

दौलत ख़ाँ पंजाब में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखना चाहता था।

आलम ख़ाँ किसी भी तरह से दिल्ली के सिंहासन पर अपना अधिकार करना चाहता था।

राणा सांगा सम्भवतः बाबर के द्वारा अफ़ग़ानों की शक्ति को नष्ट करवा कर स्वयं दिल्ली के सिंहासन को प्राप्त करना चाहता था।



हुमायूँ, बाबर, जहाँगीर और अकबर

अपने चौथे अभियान 1524 ई. में बाबर ने लाहौर एवं दीपालपुर पर अधिकार कर लिया। नवम्बर 1526 ई. में बाबर द्वारा किये गये पाँचवे अभियान में, जिसमें बदख्शाँ की सैनिक टुकड़ी के साथ बाबर का पुत्र हुमायूँ भी आ गया था, उसने सर्वप्रथम दौलत ख़ाँ को समर्पण के लिए विवश किया और बाद में उसे बन्दी बना लिया गया। शीघ्र ही आलम ख़ाँ ने भी आत्समर्पण कर दिया। इस तरह पूरा पंजाब बाबर के क़ब्ज़े में आ गया।

पानीपत का प्रथम युद्ध (21 अप्रैल, 1526 ई.)

इस समय इब्राहीम लोदी दिल्ली का सुल्तान था और दौलत ख़ाँ लोदी पंजाब का राज्यपाल। दौलत ख़ाँ लोदी, इब्राहीम लोदी से नाराज़ था। उसने दिल्ली सल्तनत से विद्रोह कर बाबर को अपनी मदद के लिये क़ाबुल से बुलाया। बाबर ख़ुद भी भारत पर हमला करना चाह रहा था। वह दौलत ख़ाँ लोदी के निमन्त्रण पर भारत पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा। उस समय तुर्क-अफ़ग़ान भारत पर आक्रमण लूट से मालामाल होने के लिये करते रहते थे। बाबर एक बहुत बड़ी सेना लेकर पंजाब की ओर चल दिया।

यह युद्ध सम्भत: बाबर की महत्वाकांक्षी योजनाओं की अभिव्यक्ति थी। यह युद्ध दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी (अफ़ग़ान) एवं बाबर के मध्य लड़ा गया। 12 अप्रैल, 1526 ई. को दोनों ओर की सेनाएँ पानीपत के मैदान में आमने-सामने आ गईं और युद्ध का आरम्भ 21 अप्रैल को हुआ। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध का निर्णय दोपहर तक ही हो गया। युद्ध में इब्राहीम लोदी बुरी तरह से परास्त हुआ और मार दिया गया। बाबर ने अपनी कृति ‘बाबरनामा’ में इस युद्ध को जीतने में मात्र 12000 सैनिकों के उपयोग किए जाने का उल्लेख किया है। किन्तु इस विषय पर इतिहासकारों में बहुत मतभेद है। इस युद्ध में बाबर ने पहली बार प्रसिद्ध ‘तुलगमा युद्ध नीति’ का प्रयोग किया। इसी युद्ध में बाबर ने तोपों को सजाने में ‘उस्मानी विधि’ (रूमी विधि) का प्रयोग किया था। बाबर ने तुलगमा युद्ध पद्धति उजबेकों से ग्रहण की थी। पानीपत के ही युद्ध में बाबर ने अपने प्रसिद्ध निशानेबाज़ ‘उस्ताद अली’ और ‘मुस्तफा’ की सेवाएँ लीं।

इस युद्ध में लूटे गए धन को बाबर ने अपने सैनिक अधिकारियों, नौकरों एवं सगे सम्बन्धियों में बाँट दिया। सम्भवत: इस बँटवारे में हुमायूँ को वह कोहिनूर हीरा प्राप्त हुआ, जिसे ग्वालियर नरेश ‘राजा विक्रमजीत’ से छीना गया था। इस हीरे की क़ीमत के बारे में यह माना जाता है कि इसके मूल्य द्वारा पूरे संसार का आधे दिन का ख़र्च पूरा किया जा सकता था। भारत विजय के ही उपलक्ष्य में बाबर ने प्रत्येक क़ाबुल निवासी को एक-एक चाँदी का सिक्का उपहार स्वरूप प्रदान किया था। अपनी इसी उदारता के कारण उसे ‘कलन्दर’ की उपाधि दी गई थी। पानीपत विजय के बाद बाबर ने कहा, ‘काबुल की ग़रीबी अब फिर हमारे लिए नहीं’। पानीपत के युद्ध ने भारत के भाग्य का तो नहीं, किन्तु लोदी वंश के भाग्य का निर्णय अवश्य कर दिया। अफ़ग़ानों की शक्ति समाप्त नहीं हुई, लेकिन दुर्बल अवश्य हो गई। युद्ध के पश्चात् दिल्ली तथा आगरा पर ही नहीं, बल्कि धीरे-धीरे लोदी साम्राज्य के समस्त भागों पर भी बाबर ने अधिकार कर लिया।

खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527 ई.)

उत्तरी भारत में दिल्ली के सुल्तान के बाद सबसे अधिक शक्तिशाली शासक चित्तौड़ का राजपूत नरेश राणा साँगा (संग्राम सिंह) था। उसने दो मुसलमानों, इब्राहीम लोदी और बाबर के युद्ध में तटस्थता की नीति अपनायी। वह सोचता था कि बाबर लूट-मारकर वापिस चला जायेगा, तब लोदी शासन को हटा दिल्ली में हिन्दू राज्य का उसे सुयोग प्राप्त होगा। जब उसने देखा कि बाबर मुग़ल राज्य की स्थापना का आयोजन कर रहा है, तब वह उससे युद्ध करने के लिए तैयार हुआ। राणा सांगा वीर और कुशल सेनानी था। वह अनेक युद्ध कर चुका था, उसे सदैव विजय प्राप्त हुई थी। उधर बाबर ने भी समझ लिया था कि राणा सांगा के रहते हुए भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना करना सम्भव नहीं हैं; अत: उसने भी अपनी सेना के साथ राणा से युद्ध करने का निश्चय किया।



काबुल के चाहर बाग़ में हुमायूँ के जन्म का उत्सव मनाता बाबर

17 मार्च, 1527 ई. में खानवा का युद्ध बाबर और राणा सांगा के बीच लड़ा गया। इस युद्ध के कारणों के विषय में इतिहासकारों के अनेक मत हैं। पहला, चूँकि पानीपत के युद्ध के पूर्व बाबर एवं राणा सांगा में हुए समझौतें के तहत इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ सांगा को बाबर के सैन्य अभियान में सहायता करनी थी, जिससे राणा सांगा बाद में मुकर गया। दूसरा, सांगा बाबर को दिल्ली का बादशाह नहीं मानता था। इन दोनों कारणों से अलग कुछ इतिहासकारों का मानना है कि, यह युद्ध बाबर एवं राणा सांगा की महत्वाकांक्षी योजनाओं का परिणाम था। बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था तथा राणा सांगा तुर्क-अफ़ग़ान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहता था, परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को युद्ध आरम्भ हुआ। इस युद्ध में राणा सांगा का साथ मारवाड़, अम्बर, ग्वालियरअजमेर, हसन ख़ाँ मेवाती, बसीन चंदेरी एवं इब्रहिम लोदी का भाई महमूद लोदी दे रहे थे।

इस युद्ध में राणा सांगा के संयुक्त मोर्चे की ख़बर से बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर ने अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली, उसने मुसलमानों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था, जिसे राज्य द्वार लगाया जाता था। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने राणा सांगा के विरुद्ध एक सफल युद्ध की रणनीति तय की।

बाबर की विजय

राजस्थान के ऐतिहासिक काव्य 'वीर विनोद' में सांगा और बाबर के इस युद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है कि, बाबर बीस हज़ार मुग़ल सैनिकों को लेकर सांगा से युद्ध करने आया था। उसने सांगा की सेना के लोदी सेनापति को प्रलोभन दिया, जिससे वह सांगा को धोखा देकर सेना सहित बाबर से जा मिला। बाबर और सांगा की पहली मुठभेड़ बयाना में और दूसरी उसके पास खानवा नामक स्थान पर हुई थी। राजपूतों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया। अंत में सांगा की हार हुई और बाबर की विजय। इस विजय कारण बाबर के सैनिकों की वीरता नहीं, बल्कि उनका आधुनिक तोपख़ाना था। राजपूतों से युद्ध करते हुए तुर्कों के पैर उखड़ गये, जिससे राजपूतों की विजय और तुर्कों की पराजय दिखाई देने लगी, किंतु जब बाबर के तोपख़ाने ने आग बरसायी, तब सांगा की जीती बाज़ी हार में बदल गई। फिर भी सांगा और उसके वीर मरते दम तक लड़ते रहे। बाबर ने राजपूतों के बारे में लिखा है,− 'वे मरना−मारना तो जानते है; किंतु युद्ध करना नहीं जानते।' सांगा और बाबर का यह निर्णायक युद्ध फ़तेहपुर सीकरी के पास खानवा नामक स्थान में 16 अप्रैल, सन् 1527 में हुआ था। इस तरह उस समय के ब्रजमंडल में जयचंद्र के बाद राणा सांगा की भी हार हुई।



तैमूर, बाबर और हुमायूँ

इस युद्ध में राणा सांगा घायल हुआ, पर किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिया गया। कालान्तर में अपने किसी सामन्त द्वारा ज़हर दिये जाने के कारण राणा सांगा की मृत्यु हो गई। खानवा के युद्ध को जीतने के बाद बाबर ने ‘ग़ाज़ी’ की उपाधि धारण की।

बाबर के जीवन में स्थिरता

खानवा के युद्ध के उपरान्त बाबर के घुमक्कड़ एवं अस्थिर जीवन में स्थिरता आई। 29 जनवरी, 1528 ई. को बाबर ने ‘चंदेरी के युद्ध’ में वहाँ के सूबेदार 'मेदिनी राय' को परास्त किया। चंदेरी युद्ध के बाद बाबर ने राजपूताना के कटे हुये सिरों की मीनार बनवाई तथा जिहाद का नारा दिया। मेदिनी राय की दो पुत्रियों का विवाह 'कामरान' एवं 'हुमायूँ' से कर दिया गया। 6 मई, 1529 ई. को बाबर ने ‘घाघरा के युद्ध’ में बंगाल एवं बिहार की संयुक्त सेना को परास्त किया। घाघरा युद्ध जल एवं थल पर लड़ा गया। परिणामस्वरूप बाबर का साम्राज्य ऑक्सस से घाघरा एवं हिमालय से ग्वालियर तक पहुँच गया। घाघरा युद्ध के बाद बाबर ने बंगाल के शासक नुसरत शाह से संधि कर उसके साम्राज्य की संप्रभुता को स्वीकार किया। नुसरत शाह ने बाबर को आश्वासन दिया कि वह बाबर के शत्रुओं को अपने साम्राज्य में शरण नहीं देगा।

मुग़ल राज्य की स्थापना

इब्राहीम लोदी और राणा साँगा की हार के बाद बाबर ने भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना की और आगरा को अपनी राजधानी बनाया। उससे पहले सुल्तानों की राजधानी दिल्ली थी; किंतु बाबर ने उसे राजधानी नहीं बनाया, क्योंकि वहाँ पठान थे, जो तुर्कों की शासन−सत्ता पंसद नहीं करते थे। प्रशासन और रक्षा दोनों नज़रियों से बाबर को दिल्ली के मुक़ाबले आगरा सही लगा। मुग़ल राज्य की राजधानी आगरा होने से शुरू से ही ब्रज से घनिष्ट संबंध रहा। मध्य एशिया में शासकों का सबसे बड़ा पद 'ख़ान' था, जो मंगोल वंशियों को ही दिया जाता था। दूसरे बड़े शासक 'अमीर' कहलाते थे। बाबर का पूर्वज तैमूर भी 'अमीर' ही कहलाता था। भारत में दिल्ली के मुस्लिम शासक 'सुल्तान' कहलाते थे। बाबर ने अपना पद 'बादशाह' घोषित किया था। बाबर के बाद सभी मुग़ल सम्राट 'बादशाह' कहलाये गये।

मृत्यु

बाबर केवल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका। लगभग 48 वर्ष की आयु में 26 दिसम्बर, 1530 ई. को बाबर की आगरा में मृत्यु हो गई। प्रारम्भ में उसके शव को आगरा के 'आराम बाग़' में रखा गया, पर अंतिम रूप से बाबर की अंतिम इच्छानुसार उसका शव क़ाबुल ले जाकर दफ़नाया गया, जहाँ उसका मक़बरा बना हुआ है। उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ मुग़ल बादशाह बना।



बाग-ए-बाबर

बाबर की उपलब्धियाँ

सम्भवतः बाबर कुषाणों के बाद ऐसा पहला शासक था, जिसने काबुल एवं कंधार को अपने पूर्ण नियंत्रण में रखा। उसने भारत में अफ़ग़ान एवं राजपूत शक्ति को समाप्त कर ‘मुग़ल साम्राज्य’ की स्थापना की, जो लगभग पौने दो सौ वर्षों तक जीवित रहा। बाबर ने भारत पर आक्रमण कर एक नई युद्ध नीति का प्रचलन किया। बाबर ने सड़कों की माप के लिए 'गज़-ए-बाबरी' का प्रयोग का शुभारम्भ किया।

विद्वान् व्यक्ति

बाबर योग्य शासक होने के साथ ही तुर्की भाषा का विद्वान् भी था। उसने तुर्की भाषा में अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ की रचना की, जिसका फ़ारसी भाषा में अनुवाद बाद में अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना ने किया। लीडेन एवं अर्सकिन ने 1826 ई. में 'बाबरनामा' का अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद किया। बेवरिज ने इसका एक संशोधित अंग्रेज़ी संस्करण निकाला। इसके अतिरिक्त बाबर को ‘मुबइयान’ नामक पद्य शैली का जन्मदाता भी माना जाता है। इसके अतिरिक्त बाबर ने 'खत-ए-बाबरी' नामक एक लिपि का भी अविष्कार किया। बाबर ने अपनी आत्मकथा 'बाबरनामा' में केवल पाँच मुस्लिम शासकों- बंगालदिल्लीमालवागुजरात एवं बहमनी राज्यों तथा दो हिन्दू शासकों मेवाड़ एवं विजयनगर का उल्लेख किया है।

प्रमुख इतिहासकारों के मत

स्मिथ ने बाबर को अपने युग के एशियाई शासकों में सबसे अधिक प्रतिभाशाली एवं किसी देश तथा काल के सम्राटों में उच्च पद पानें योग्य बताया।

रशब्रुक ने तो एक व्यक्ति एवं शासक के रूप में बाबर की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

इलियट ने कहा कि, ‘प्रसन्न चित्त’, वीर, महान, विचारशील तथा निष्पक्ष व्यक्तित्व के कारण यदि बाबर का पालन-पोषण एवं प्रशिक्षण इंग्लैण्ड में होता तो अवश्य ही वह ‘हेनरी चतुर्थ’ होता।


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