# A R Y A #

મારા આ બ્લોગમા આપ સૌનું હાર્દિક સ્વાગત છે.- ARYA PATEL

Wednesday 11 December 2019

प्राचीन बिहार का इतिहास

प्राचीन बिहार का इतिहास 







बिहार के प्राचीन इतिहास के स्रोत


●प्राचीन बिहार की जानकारी के लिये पुरातात्विक साहित्य, यात्रा वृतान्त व अन्य देशी स्रोत उपलब्ध हैं।
●प्राचीन शिलालेख:-अभिलेखों का अध्ययन epigraphy कहलाता है!अभिलेख चार लिपियों ब्राह्मीखरोष्ठी, आरमेइक, और यूनानी में है!, रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, समुद्रगुप्त का इलाहाबाद सतम्भ लेख, पुलकेशिन का ऐहोल अभिलेख!
●सिक्‍के, पट्टे, दानपत्र, ताम्र पत्र, राजकाज सम्बन्धी खाते-बहियों, दस्तावेज, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतान्त, स्मारक, इमारतें आदि विशेष महत्वपूर्ण होता है।
●ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक सामग्री व अन्य वस्तुएँ बिहार में उपलब्ध हैं।

●बिहार का उल्लेख वेदों, पुराणों, महाकाव्यों आदि ग्रन्थों में मिलता है।
●प्राचीन बिहार में मगध साम्राज्य के अनेक शासकों व जैन, बौद्ध धर्म सम्बन्धित जानकारियाँ ग्रन्थों से मिलती हैं।
●अनेक प्राचीन सामग्री का विवरण भारत के अनेक स्थानों एवं चीन, तिब्बत, अरब, श्रीलंका, बर्मा व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों आदि में उपलब्ध होती हैं।
●छात्र एवं विदेशी यात्रियों के आगमन, बौद्ध-जैन धर्म के प्रचारकों, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से होने वाले व्यापार आदि के कारण प्राचीन बिहार के अनेक स्थानों, पाटलिपुत्र, वैशाली. बोधगया, नालन्दा, राजगीर, पावापुरी, अंग आदि से व्यापक सम्पर्क थे।






प्राचीन बिहार के ऐतिहासिक स्रोतों से प्राप्त महत्वपूर्ण तथ्यों से स्पष्ट होता है कि यह राज्य पवित्र गंगा घाटी में स्थित भारत का उत्तरोत्तर क्षेत्र था जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली था। यहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत बल्कि समस्त संसार आलोकित हुआ।

काल खण्ड के अनुसार बिहार के इतिहास को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(।) पूर्व ऐतिहासिक काल, (॥) ऐतिहासिक काल।

पूर्व ऐतिहासिक काल


यह ऐतिहासिक काल अत्यन्त प्राचीनतम है जो ऐतिहासिक युग से करीब एक लाख वर्ष पूर्व का काल है।

●पूर्व ऐतिहासिक काल में बिहार के विभिन्‍न भागों में आदि मानव रहा करते थे। आदि मानव से जुड़े विभिन्‍न प्रकार के तात्कालिक साक्ष्य एवं सामग्री प्राप्त हुए हैं।
●जिन स्थलों से साक्ष्य मिले हैं वे मुंगेरपटना एवं गया हैं। इनमें सोनपुर, चेचर (वैशाली), मनेर (पटना) उल्लेखनीय हैं।
●प्लीस्तोसीन काल के पत्थर के बने सामान और औजार बिहार में विभिन्‍न स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
चिरांद एवं सोनपुर (गया) से काले एवं लाल मृदभांड युगीन (हड़प्पा युगीन) अवशेष मिले हैं।
●हड़प्पा युगीन साक्ष्य ओरियम (भागलपुर), राजगीर एवं वैशाली में भी मिले हैं।

पूर्व ऐतिहासिक बिहार को निम्न युगों द्वारा अध्ययन किया जा सकता है-

पूर्व प्रस्तर युग (१०००० ई. पू. से पूर्व)-

आरम्भिक प्रस्तर युग के अवशेष हरत, कुल्हाड़ी, चाकू, खुर्पी, रजरप्पा (हजारीबाग पहले बिहार) एवं संजय घाटी (सिंहभूम) में मिले हैं। ये साक्ष्य जेठियन (गया), मुंगेर और नालन्दा जिले में उत्खनन के क्रम में प्राप्त हुए हैं।
मध्यवर्ती प्रस्तर युग (१०००० ई. पू. से ४००० ई. पू.)-

इसके अवशेष बिहार में मुख्यतः मुंगेर जिले से प्राप्त हुए हैं। इसमें साक्ष्य के रूप में पत्थर के छोटे टुकड़ों से बनी वस्तुएँ तथा तेज धार और नोंक वाले औजार प्राप्त हुए हैं।
नव प्रस्तर युग (४००० ई. पू. से २५०० ई. पू.)-

इस काल के ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में पत्थर के बने सूक्ष्म औजार प्राप्त हुए हैं। हड्डियों के बने सामान भी प्राप्त हुए हैं। इस काल के अवशेष उत्तर बिहार में चिरॉद (सारण जिला) और चेचर (वैशाली) से प्राप्त हुए हैं।
ताम्र प्रस्तर युग (२५०० ई. पू. से १००० ई. पू.)-

●चिरॉद और सोनपुर (गया) से काले एवं लाल मृदभांड को सामान्य तौर पर हड़प्पा की सभ्यता की विशेषता मानी जाती है।
●बिहार में इस युग के अवशेष चिरॉद (सारण), चेचर (वैशाली), सोनपुर (गया), मनेर (पटना) से प्राप्त हुए हैं।
●उत्खनन से प्राप्त मृदभांड और मिट्‍टी के बर्तन के टुकड़े से तत्कालीन भौतिक संस्कृति की झलक मिलती है।
●इस युग में बिहार सांस्कृतिक रूप से विकसित था।
●मानव ने गुफाओं से बाहर आकर कृषि कार्य की शुरुआत की तथा पशुओं को पालक बनाया।
●मृदभांड बनाना और उसका खाने पकाने एवं संचय के उद्देश्य से प्रयोग करना भी सीख गया था।
●ये सभी साक्ष्य को हम प्री ऐरे ऐज बिहार का इतिहास भी कह सकते हैं।

ऐतिहासिक काल (१००० ई. पू. से ६०० ई. पू.)

●यह काल उत्तर वैदिक काल माना जाता है।

●बिहार में आर्यीकरण इसी काल से प्रारम्भ हुआ।
●बिहार का प्राचीनतम वर्णन अथर्ववेद (१०वीं - ८वीं शताब्दी ई. पू.) एवं पंचविश ब्राह्मण (आठवीं-छठवीं शताब्दी ई. पू.) में मिलता है।
●इन ग्रन्थों में बिहार के लिए 'ब्रात्य' शब्द का उल्लेख है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि अथर्ववेद की रचना के समय में ही आर्यों ने बिहार के क्षेत्र में प्रवेश किया।
●८०० ई. पू. रचित शतपथ ब्राह्मण में गांगेय घाटी के क्षेत्र में आर्यों द्वारा जंगलों को जलाकर और काटकर साफ करने की जानकारी मिलती है।
ऋग्वेद में बिहार को 'कीकट' कहा गया है।

●ऋग्वेद में कीकट क्षेत्र के अमित्र शासक प्रेमगन्द की चर्चा आती है,
●जबकि आर्यों के सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रारंभ ब्राह्मण ग्रन्थ की रचना के समय हुआ।
●शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता, महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिककालीन बिहार की जानकारी मिलती है।

●बिहार के सन्दर्भ में बेहतर जानकारी पुराण, रामायण तथा महाभारत से ही मिल जाती है।
●ग्रन्थों के उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार आर्यों ने मगध क्षेत्र में बसने के बाद अंग क्षेत्र में भी आर्यों की संस्कृति का विस्तार किया।
● वाराह पुराण के अनुसार कीकट को एक अपवित्र प्रदेश कहा गया है,
● जबकि वायु पुराण, पद्म पुराण में गया, राजगीर, पनपन आदि को पवित्र स्थानों की श्रेणी में रखा गया है।
●वायु पुराण में गया क्षेत्र को “असुरों का राज" कहा गया है।
●आर्यों के विदेह क्षेत्र में बसने की चर्चा शतपथ ब्राह्मण में की गई है। इसमें विदेह माधव द्वारा अपने पुरोहित गौतम राहूगण के साथ अग्नि का पीछा करते हुए सदानीरा नदी (आधुनिक गंडक) तक पहुँचने का वर्णन है। इस क्रम में अग्नि ने सरस्वती नदी से सदा मीरा नदी तक जंगल को काट डाला जिससे बने खाली क्षेत्र में आर्यों को बसने में सहायता मिली।
●वाल्मीकि रामायण में मलद और करूणा शब्द का उल्लेख बक्सर के लिए किया गया है जहाँ ताड़िकाक्षसी का वध हुआ था।

मगध महाजनपद:-



●मगध का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। ●अभियान चिन्तामणि के अनुसार मगध को कीकट कहा गया है।
●मगध बुद्धकालीन समय में एक शक्‍तिशाली राजतन्त्रों में एक था।
●यह दक्षिणी बिहार में स्थित था जो कालान्तर में उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्‍तिशाली महाजनपद बन गया। यह गौरवमयी इतिहास और राजनीतिक एवं धार्मिकता का विश्‍व केन्द्र बन गया।
●मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्‍चिम में सोन नदी तक विस्तृत थीं।
●मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी। यह पाँच पहाड़ियों से घिरा नगर था।
●कालान्तर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई।
●मगध राज्य में तत्कालीन शक्‍तिशाली राज्य कौशल, वत्स व अवन्ति को अपने जनपद में मिला लिया।

●इस प्रकार मगध का विस्तार अखण्ड भारत के रूप में हो गया और प्राचीन मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास बना।

प्राचीन गणराज्य- प्राचीन बिहार में (बुद्धकालीन समय में) गंगा घाटी में लगभग १० गणराज्यों का उदय हुआ। ये गणराज्य हैं-
(१) कपिलवस्तु के शाक्य,
 (२) सुमसुमार पर्वत के भाग,
 (३) केसपुत्र के कालाम
, (४) रामग्राम के कोलिय, 
(५) कुशीमारा के मल्ल, 
(६) पावा के मल्ल, 
(७) पिप्पलिवन के मारिय, 
(८) आयकल्प के बुलि, 
(९) वैशाली के लिच्छवि, (
१०) मिथिला के विदेह।
विदेह-
●प्राचीन काल में आर्यजन अपने गणराज्य का नामकरण राजन्य वर्ग के किसी विशिष्ट व्यक्‍ति के नाम पर किया करते थे जिसे विदेह कहा गया।
●ये जन का नाम था। कालान्तर में विदेध ही विदेह हो गया।
●विदेह राजवंश की शुरुआत इश्‍वाकु के पुत्र निमि विदेह से मानी जाती है। यह सूर्यवंशी थे।
● इसी वंश का दूसरा राजा मिथि जनक विदेह ने मिथिलांचल की स्थापना की।
●इस वंश के २५वें राजा सिरध्वज जनक थे जो कौशल के राजा दशरथ के समकालीन थे।
  • जनक द्वारा गोद ली गई पुत्री सीता का विवाह दशरथ पुत्र राम से हुआ।
  • विदेह की राजधानी मिथिला थी। इस वंश के करल जनक अन्तिम राजा थे।

  • मिथिला के विदेह भागलपुर तथा दरभंगा जिलों के भू-भाग में स्थित हैं।

  • मगध के राजा महापद्मनन्द ने विदेह राजवंश के अन्तिम राजा करलजनक को पराजित कर मगध में मिला लिया।

उल्लेखनीय है कि विदेह राजतन्त्र से बदलकर (छठीं शती में) गणतन्त्र हो गया था। यही बाद में लिच्छवी संघ के नाम से विख्यात हुआ।

●गणराज्य की शासन व्यवस्था- सारी शक्‍ति केन्द्रीय समिति या संस्थागार में निहित थी।
●संस्थागार के कार्यभार- आधुनिक प्रजातन्त्र संसद के ही समान थी।
●इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन बिहार के मुख्य जनपद मगध, अंग, वैशाली और मिथिला भारतीय संस्कृति और सभ्यता की विशिष्ट आधारशिला हैं।

मगध साम्राज्य का उदय


  • मगध राज्य का विस्तार उत्तर में गंगा, पश्‍चिम में सोन तथा दक्षिण में जगंलाच्छादित पठारी प्रदेश तक था।
  • पटना और गया जिला का क्षेत्र प्राचीनकाल में मगध के नाम से जाना जाता था।
●मगध प्राचीनकाल से ही राजनीतिक उत्थान, पतन एवं सामाजिक-धार्मिक जागृति का केन्द्र बिन्दु रहा है।
● मगध बुद्ध के समकालीन एक शक्‍तिकाली व संगठित राजतन्‍त्र था।
●कालान्तर में मगध का उत्तरोत्तर विकास होता गया और मगध का इतिहास (भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास के प्रमुख स्तम्भ के रूप में) सम्पूर्ण भारतवर्ष का इतिहास बन गया।

मगध साम्राज्य का उत्कर्ष करने में निम्न वंश का महत्वपूर्ण स्थान रहा है-

ब्रहद्रथ वंश-

●यह सबसे प्राचीनतम राजवंश था।
● महाभारततथा पुराणों के अनुसार जरासंध के पिता तथा चेदिराज वसु के पुत्र ब्रहद्रथ ने ब्रहद्रथ वंश की स्थापना की।
● इस वंश में दस राजा हुए जिसमें ब्रहद्रथ पुत्र जरासंध एवं प्रतापी सम्राट था।
●जरासंध ने काशी, कौशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, कश्मीर और गांधार राजाओं को पराजित किया।
●मथुरा शासक कंस ने अपनी बहन की शादी जरासंध से की तथा ब्रहद्रथ वंश की राजधानी वशुमति या गिरिव्रज या राजगृह को बनाई।
●भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से पाण्डव पुत्र भीम ने जरासंध को द्वन्द युद्ध में मार दिया।
●उसके बाद उसके पुत्र सहदेव को शासक बनाया गया।
●इस वंश का अन्तिम राजा रिपुन्जय था।
●रिपुन्जय को उसके दरबारी मंत्री पूलिक ने मारकर अपने पुत्र को राजा बना दिया।
●इसके बाद एक अन्य दरबारी ‘महीय’ ने पूलिक और उसके पुत्र की हत्या कर अपने पुत्र बिम्बिसार को गद्दी पर बैठाया।
●ईसा पूर्व ६०० में ब्रहद्रथ वंश को समाप्त कर एक नये राजवंश की स्थापना हुई।
● पुराणों के अनुसार मनु के पुत्र सुद्युम्न के पुत्र का ही नाम “गया" था।
वैशाली के लिच्छवि-

बिहार में स्थित प्राचीन गणराज्यों में बुद्धकालीन समय में सबसे बड़ा तथा शक्‍तिशाली राज्य था। इस गणराज्य की स्थापना सूर्यवंशीय राजा इश्‍वाकु के पुत्र विशाल ने की थी, जो कालान्तर में ‘वैशाली’ के नाम से विख्यात हुई।
  • महावग्ग जातक के अनुसार लिच्छवि वज्जिसंघ का एक धनी समृद्धशाली नगर था। यहाँ अनेक सुन्दर भवन, चैत्य तथा विहार थे।
  • लिच्छवियों ने महात्मा बुद्ध के निवारण हेतु महावन में प्रसिद्ध कतागारशाला का निर्माण करवाया था।
  • राजा चेतक की पुत्री चेलना का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार से हुआ था।
  • ईसा पूर्व ७वीं शती में वैशाली के लिच्छवि राजतन्त्र से गणतन्त्र में परिवर्तित हो गया।
  • विशाल ने वैशाली शहर की स्थापना की। वैशालिका राजवंश का प्रथम शासक नमनेदिष्ट था, जबकि अन्तिम राजा सुति या प्रमाति था। इस राजवंश में २४ राजा हुए हैं।

अलकप्प के बुलि-
●यह प्राचीन गणराज्य बिहार के शाहाबाद, आरा और मुजफ्फरपुर जिलों के बीच स्थित था।
●बुलियों का बैठ द्वीप (बेतिया) के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। बेतिया बुलियों की राजधानी थी।
●बुलि लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। बुद्ध की मृत्यु के पश्‍चात्‌ उनके अवशेष को प्राप्त कर एक स्तूप का निर्माण करवाया था।

हर्यक वंश- हर्यंका राजवंश (544 BC से 412 BC )

●बिम्बिसार ने हर्यक वंश की स्थापना ५४४ ई. पू. में की। इसके साथ ही राजनीतिक शक्‍ति के रूप में बिहार का सर्वप्रथम उदय हुआ।
●बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक/राजा माना जाता है।
●बिम्बिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी राजधानी बनायी।
●इसके वैवाहिक सम्बन्धों (कौशल, वैशाली एवं पंजाब) की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
बिम्बिसार (५४४ ई. पू. से ४९२ ई. पू.)-

बिम्बिसार एक कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी शासक था। उसने प्रमुख राजवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर राज्य को फैलाया।
1.सबसे पहले उसने लिच्छवि गणराज्य के शासक चेतक की पुत्री चेलना के साथ विवाह किया।
2.दूसरा प्रमुख वैवाहिक सम्बन्ध कौशल राजा प्रसेनजीत की बहन महाकौशला के साथ विवाह किया।
3. इसके बाद भद्र देश की राजकुमारी क्षेमा के साथ विवाह किया।
महावग्ग के अनुसार बिम्बिसार की ५०० रानियाँ थीं।
●उसने अवंति के शक्‍तिशाली राजा चन्द्र प्रद्योत के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाया।
● सिन्ध के शासक रूद्रायन तथा गांधार के मुक्‍कु रगति से भी उसका दोस्ताना सम्बन्ध था।
●उसने अंग राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था वहाँ अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा नियुक्‍त किया था।
बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का मित्र और संरक्षक था।
●विनयपिटक के अनुसार बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया, लेकिन जैन और ब्राह्मण धर्म के प्रति उसकी सहिष्णुता थी।
● बिम्बिसार ने करीब ५२ वर्षों तक शासन किया।
● बौद्ध और जैन ग्रन्थानुसार उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया था जहाँ उसका ४९२ ई. पू. में निधन हो गया।
  • बिम्बिसार ने अपने बड़े पुत्र “दर्शक" को उत्तराधिकारी घोषित किया था।
  • भारतीय इतिहास में बिम्बिसार प्रथम शासक था जिसने स्थायी सेना रखी।
  • बिम्बिसार ने राजवैद्य जीवक को भगवान बुद्ध की सेवा में नियुक्‍त किया था।
  • बौद्ध भिक्षुओं को निःशुल्क जल यात्रा की अनुमति दी थी।s
  • बिम्बिसार की हत्या महात्मा बुद्ध के विरोधी देवव्रत के उकसाने पर अजातशत्रु ने की थी।

आम्रपाली-

●यह वैशाली की नर्तकी एवं परम रूपवती काम कला प्रवीण वेश्या थी।
●आम्रपाली के सौन्दर्य पर मोहित होकर बिम्बिसार ने लिच्छवि से जीतकर राजगृह में ले आया।
● उसके संयोग से जीवक नामक पुत्ररत्‍न हुआ। बिम्बिसार ने जीवक को तक्षशिला में शिक्षा हेतु भेजा। ●यही जीवक एक प्रख्यात चिकित्सक एवं राजवैद्य बना।

अजातशत्रु (४९२-४६० ई. पू.)-


 ●बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु मगध के सिंहासन पर बैठा।

●इसके बचपन का नाम  कुणिक  था। वह अपने पिता की हत्या कर गद्दी पर बैठा। अजातशत्रु ने अपने पिता के साम्राज्य विस्तार की नीति को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया।

●अजातशत्रु के सिंहासन मिलने के बाद वह अनेक राज्य संघर्ष एवं कठिनाइयों से घिर गया लेकिन अपने बाहुबल और बुद्धिमानी से सभी पर विजय प्राप्त की।
●महत्वाकांक्षी अजातशत्रु ने अपने पिता को कारागार में डालकर कठोर यातनाएँ दीं जिससे पिता की मृत्यु हो गई। इससे दुखित होकर कौशल रानी की मृत्यु हो गई।
अजात शत्रु अपने पूरे शासन काल के दौरान तेज़ विस्तार के लिए आक्रामक नीति का पालन करता रहा | इस नीति ने उसे काशी और कौशल की तरफ धकेल दिया 

कौशल संघर्ष- 

●बिम्बिसार की पत्‍नी (कौशल) की मृत्यु से प्रसेनजीत बहुत क्रोधित हुआ और अजातशत्रु के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया।
● पराजित प्रसेनजीत श्रावस्ती भाग गया लेकिन दूसरे युद्ध-संघर्ष में अजातशत्रु पराजित हो गया लेकिन प्रसेनजीत ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह कर काशी को दहेज में दे दिया।

वज्जि संघ संघर्ष- 

यह युद्ध 16 साल तक चला |
●लिच्छवि राजकुमारी चेलना बिम्बिसार की पत्‍नी थी जिससे उत्पन्‍न दो पुत्री हल्ल और बेहल्ल को उसने अपना हाथी और रत्‍नों का एक हार दिया था जिसे अजातशत्रु ने मनमुटाव के कारण वापस माँगा।
●इसे चेलना ने अस्वीकार कर दिया, फलतः अजातशत्रु ने लिच्छवियों के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया।
●वस्सकार से लिच्छवियों के बीच फूट डालकर उसे पराजित कर दिया और लिच्छवि अपने राज्य में मिला लिया।

मल्ल संघर्ष- 

अजातशत्रु ने मल्ल संघ पर आक्रमण कर अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बड़े भू-भाग मगध साम्राज्य का अंग बन गया।
  • अजातशत्रु ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्दी अवन्ति राज्य पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की।
  • अजातशत्रु धार्मिक उदार सम्राट था। विभिन्‍न ग्रन्थों के अनुसार वे बौद्ध और जैन दोनों मत के अनुयायी माने जाते हैं लेकिन भरहुत स्तूप की एक वेदिका के ऊपर अजातशत्रु बुद्ध की वंदना करता हुआ दिखाया गया है।
  • उसने शासनकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अवशेषों पर राजगृह में स्तूप का निर्माण करवाया और ४८३ ई. पू. राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया।
  •  इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं के सम्बन्धित पिटकों को सुतपिटक और विनयपिटक में विभाजित किया।
  • सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उसने लगभग ३२ वर्षों तक शासन किया और ४६० ई. पू. में अपने पुत्र उदयन द्वारा मारा गया था।
  • अजातशत्रु के शासनकाल में ही महात्मा बुद्ध ४८७ ई. पू. महापरिनिर्वाण तथा महावीर का भी निधन ४६८ ई. पू. हुआ था।

उदयन

अजातशत्रु के बाद ४६० ई. पू. मगध का राजा बना। बौद्ध ग्रन्थानुसार इसे पितृहन्ता लेकिन जैन ग्रन्थानुसार पितृभक्‍त कहा गया है।
●इसकी माता का नाम पद्‍मावती था।
  • उदयन शासक बनने से पहले चम्पा का उपराजा था। वह पिता की तरह ही वीर और विस्तारवादी नीति का पालक था।

  • इसने पाटलि पुत्र (गंगा और सोन के संगम) को बसाया तथा अपनी राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थापित की।

  • मगध के प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति के गुप्तचर द्वारा उदयन की हत्या कर दी गई।
●बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उदयन के तीन पुत्र अनिरुद्ध, मंडक और नागदशक थे। उदयन के तीनों पुत्रों ने राज्य किया।

नागदशक:-

●अन्तिम राजा नागदासक था। जो अत्यन्त विलासी और निर्बल था। शासनतन्त्र में शिथिलता के कारण व्यापक असन्तोष जनता में फैला।
● राज्य विद्रोह कर उनका सेनापति शिशुनाग राजा बना। इस प्रकार हर्यक वंश का अन्त और शिशुनाग वंश का अन्त और शिशुनाग वंश की स्थापना ४१२ई.पू. हुई।
शिशुनाग वंश(४१२ई. पू. से ३४४ ई. पू.)
शिशुनाग ४१२ ई. पू. गद्दी पर बैठा।
● महावंश के अनुसार वह लिच्छवि राजा के वेश्या पत्‍नी से उत्पन्‍न पुत्र था।
●पुराणों के अनुसार वह क्षत्रिय था।
●इसने सर्वप्रथम मगध के प्रबल प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति को मिलाया।
● मगध की सीमा पश्‍चिम मालवा तक फैल गई और वत्स को मगध में मिला दिया।
● वत्स और अवन्ति के मगध में विलय से, पाटलिपुत्र को पश्‍चिमी देशों से, व्यापारिक मार्ग के लिए रास्ता खुल गया।
  • शिशुनाग ने मगध से बंगाल की सीमा से मालवा तक विशाल भू-भाग पर अधिकार कर लिया।

  • शिशुनाग एक शक्‍तिशाली शासक था जिसने गिरिव्रज के अलावा वैशाली नगर को भी अपनी राजधानी बनाया। ३९४ ई. पू. में इसकी मृत्यु हो गई।


कालाशोक-

● यह शिशुनाग का पुत्र था जो शिशुनाग के ३९४ ई. पू. मृत्यु के बाद मगध का शासक बना।
● महावंश में इसे कालाशोक तथा पुराणों में काकवर्ण कहा गया है।

● कालाशोक ने अपनी राजधानी को पाटलिपुत्र स्थानान्तरित कर दिया था।

●इसने २८ वर्षों तक शासन किया। कालाशोक के शासनकाल में ही बौद्ध धर्म की द्वितीय संगीति का आयोजन हुआ।
  • बाणभट्ट रचित हर्षचरित के अनुसार काकवर्ण को राजधानी पाटलिपुत्र में घूमते समय महापद्यनन्द नामक व्यक्‍ति ने चाकू मारकर हत्या कर दी थी। ३६६ ई. पू. कालाशोक की मृत्यु हो गई।
  • महाबोधिवंश के अनुसार कालाशोक के दस पुत्र थे, जिन्होंने मगध पर २२ वर्षों तक शासन किया।

नन्दवंश:(३४४से ३२२ई. पू.)

  • ३४४ ई. पू. में शिशुनाग वंश का अन्त हो गया और नन्द वंश का उदय हुआ! 

  • संस्थापक-महानन्दिन/महापद्मनन्द :-
  • ३४४ ई. पू. में महापद्यनन्द नामक व्यक्‍ति ने नन्द वंश की स्थापना की।
  • ● पुराणों में इसे महापद्म तथा महाबोधिवंश में उग्रसेन कहा गया है।
  • ●चौथी शताब्दी ई.पू.का यह मगध का सर्वश्रेष्ठ शासक था
● इसी ने सर्वप्रथम कलिंग की विजय की तथा वहाँ एक नहर खुदवायी गयी।
● इसका उल्लेख प्रथम शताब्दी ई0पू0 में खारवेल के हाँथी गुम्फा अभिलेख में मिलता है। 
●वह कलिंग जिनसेन की जैन प्रतिमा भी उठा लाया। इससे पता चलता है कि महापदम्नन्द जैन धर्म का अनुयायी था 
●पुराणों में इसे एकराट् और एकछत्र शासक कहा गया है। सर्व क्षत्रान्तक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है।
●प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य पाणिनी और काव्यायन इसके काल के थे

●यह नाई जाति का था
●महापद्म नन्द के प्रमुख राज्य उत्तराधिकारी हुए हैं- उग्रसेन, पंडूक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, योविषाणक, दशसिद्धक, कैवर्त, धनानन्द।

घनानन्द: 
घनानन्द ने जनता पर बहुत से कर आरोपित किये थे इससे जनता असंतुष्ट थी 
●इसी के शासन काल में उत्तर- पश्चिमी भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ लेकिन वह ब्यास नदी तट तक ही आया तथा उसके बाद वह वापस लौट गया 
●घनानन्द के दरबार में तक्षशिला का आचार्य विष्णुगुप्त आया था, राजा ने उसको अपमानित कर दिया फलस्वरूप चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से उसने घनानन्द को गद्दी से हटाकर एक नवीन राजवंश मौर्य वंश की स्थापना की।
●धनानन्द एक लालची और धन संग्रही शासक था, जिसे असीम शक्‍ति और सम्पत्ति के बावजूद वह जनता के विश्‍वास को नहीं जीत सका।
●उसने एक महान विद्वान ब्राह्मण चाणक्य को अपमानित किया था।
  • चाणक्य ने अपनी कूटनीति से धनानन्द को पराजित कर चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाया।
  • महापद्मनन्द पहला शासक था जो गंगा घाटी की सीमाओं का अतिक्रमण कर विन्ध्य पर्वत के दक्षिण तक विजय पताका लहराई।
  • नन्द वंश के समय मगध राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्धशाली साम्राज्य बन गया।
  • व्याकरण के आचार्य पाणिनी महापद्मनन्द के मित्र थे।
  • वर्ष, उपवर्ष, वर, रुचि, कात्यायन जैसे विद्वान नन्द शासन में हुए।
  • शाकटाय तथा स्थूल भद्र धनानन्द के जैन मतावलम्बी अमात्य थे।

सिकन्दर का आक्रमण:-
● सिकन्दर यूनान के मकदूनियाँ क्षेत्र का रहने वाला था विश्व विजय की आकांक्षा से उसने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया
● तक्षशिला के शासक आम्भी ने उसे भारत पर आक्रमण का निमंत्रण भी भेजा था।
● उत्तर-पश्चिम भारत की राजनैतिक स्थिति सिकन्दर के अनुकूल थी यहाँ छोटे-छोटे राजतंन्त्र एवं गणतंत्र स्थित थे जिनमें आपस में संघर्ष हो रहा था। 
●सिकन्दर का सबसे जबरदस्त विरोध पुरु के राजा पोरस ने किया दोनों के बीच वितस्ता या झेलम का प्रसिद्ध युद्ध हुआ इस युद्ध में पुरु की पराजय हुई परन्तु उसके बातचीत से सिकन्दर बेहद प्रभावित हुआ और पुरु का राज्य उसे वापस कर दिया।

आक्रमण का प्रभाव:- 
●सिकन्दर भारत में कुल 19 महीने रहा। उसकी सेनाओं ने व्यास नदी के आगे बढ़ने से मना कर दिया। 
●इतिहासकारों में इस आक्रमण के प्रभावों को लेकर मतभेद है। प्रसिद्ध इतिहासकार विसेन्ट स्मिथ ने लिखा है कि ’’सिकन्दर आँधी की तरह आया और वापस चला गया परन्तु भारत अपवर्तित रहा’’ परन्तु सिकन्दर के भारत पर आक्रमण का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा।
  1. सिकन्दर के आक्रमण के फलस्वरूप चार नये व्यापारिक मार्गों की खोज हुई क्योंकि सिकन्दर सिन्धु के रास्ते से वापस हुआ था जबकि उसका सेनापति निर्याकस दूसरे रास्ते से सिकन्दर की मृत्यु बेबीलोन में हुई।
  2. भारत में यूनानी मुद्राओं के अनुकरण पर उलूक शैली के सिक्के ढाले गये।
  3. उसने कई नये नगरों का निर्माण भी किया जिसमें-निर्केया, वूकेफाल तथा सिकन्दरिया प्रमुख थे।
  4. सिकन्दर ने उत्तर पश्चिम से एक लाख साॅडो को अपने गृह नगर मकदूनियाँ भेजा था।
  5. सिकन्दर द्वारा उत्तर पश्चिम के छोटे-छोटे राज्यों की सत्ता समाप्त करने से चन्द्रगुप्त को प्रेरणा मिली आगे चलकर उसने भारत में एक विस्तृत साम्राज्य मौर्य वंश की नींव डाली।
  6. सिकन्दर के समय में कुछ इतिहासकारों ने उत्तरी पश्चिमी भारत में सती प्रथा का उल्लेख किया है
● सिकन्दर के भारत से जाने के बाद मगध साम्राज्य में अशान्ति और अव्यवस्था फैली।

विदेशी आक्रमण:- भारत पर प्रारम्भ में ईरानी या फारसी हरवामनी ने आक्रमण किया इसके उपरान्त सिकन्दर का आक्रमण हुआ।
ईरानी अथवा फारसी आक्रमण:- फारस वालों को हरवामनी भी कहा जाता है सबसे पहले क्षयार्ष नामक शासक ने आक्रमण किया परन्तु इसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली इसी के बाद डेरियस प्रथम या दारा ने भारत पर आक्रमण किया।
डेरियस प्रथम या दारा प्रथम:- इसने भारत पर 516 ई0पू0 में आक्रमण कर पश्चिमोत्तर भाग को जीत लिया तथा उसे अपने 20वें प्रान्त (क्षत्रप) के रूप में शामिल किया। इतिहास के पिता माने जाने वाले हेरोडोट्स ने लिखा है कि दारा प्रथम को इस प्रान्त से 360 टेलेन्ट स्वर्ण धूलि की आया होती थी। ईरानी सम्पर्क के फलस्वरूप भारत के पश्चिमोत्तर भागों में एक नयी लिपि खरोष्ठी का प्रचलन हुआ। यह लिपि ईरानी आइमेइक लिपि से उत्पन्न हुई थी। कुछ नये शब्द भी प्रचलित हुए जैसे राजाज्ञा के लिए दिपि शब्द मिलता है।


मौर्य राजवंश:-



●३२२ ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य की सहायता से धनानन्द की हत्या कर मौर्य वंश की नींव डाली थी।
●चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्दों के अत्याचार व घृणित शासन से मुक्‍ति दिलाई और देश को एकता के सूत्र में बाँधा और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
●यह साम्राज्य गणतन्त्र व्यवस्था पर राजतन्त्र व्यवस्था की जीत थी।
●इस कार्य में अर्थशास्त्र नामक पुस्तक द्वारा चाणक्य ने सहयोग किया। विष्णुगुप्त व कौटिल्य उनके अन्य नाम हैं।
● आर्यों के आगमन के बाद यह प्रथम स्थापित साम्राज्य था।

चन्द्रगुप्त मौर्य (३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.)


● चन्द्रगुप्त मौर्य के जन्म वंश के सम्बन्ध में विवाद है। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में परस्पर विरोधी विवरण मिलता है।
●विविध प्रमाणों और आलोचनात्मक समीक्षा के बाद यह तर्क निर्धारित होता है कि चन्द्रगुप्त मोरिय वंश का क्षत्रिय था।
●चन्द्रगुप्त के पिता मोरिय नगर प्रमुख थे।
●जब वह गर्भ में ही था तब उसके पिता की मृत्यु युद्धभूमि में हो गयी थी।
●उसका पाटलिपुत्र में जन्म हुआ था तथा एक गोपालक द्वारा पोषित किया गया था।
●चरावाह तथा शिकारी रूप में ही राजा-गुण होने का पता चाणक्य ने कर लिया था तथा उसे एक हजार में कषार्पण में खरीद लिया। तत्पश्‍चात्‌ तक्षशिला लाकर सभी विद्या में निपुण बनाया। अध्ययन के दौरान ही सम्भवतः चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था।
● ३२३ ई. पू. में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी तथा उत्तरी सिन्धु घाटी में प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या हो गई।
●जिस समय चन्द्रगुप्त राजा बना था भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत खराब थी।
●उसने सबसे पहले एक सेना तैयार की और सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ किया।
●३१७ ई. पू. तक उसने सम्पूर्ण सिन्ध और पंजाब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।
●अब चन्द्रगुप्त मौर्य सिन्ध तथा पंजाब का एकक्षत्र शासक हो गया।
● पंजाब और सिन्ध विजय के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने धनानन्द का नाश करने हेतु मगध पर आक्रमण कर दिया।
●युद्ध में धनाननन्द मारा गया अब चन्द्रगुप्त भारत के एक विशाल साम्राज्य मगध का शासक बन गया।
● सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस उसका उत्तराधिकारी बना। वह सिकन्दर द्वारा जीता हुआ भू-भाग प्राप्त करने के लिए उत्सुक था।
●इस उद्देश्य से ३०५ ई. पू. उसने भारत पर पुनः चढ़ाई की।
★चन्द्रगुप्त ने पश्‍चिमोत्तर भारत के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित कर:-
एरिया (हेरात),
अराकोसिया (कंधार),
जेड्रोसिया पेरोपेनिसडाई (काबुल) के भू-भाग को अधिकृत कर विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की।
●सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलन का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया।
●उसने मेगस्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में नियुक्‍त किया।
●चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्‍चिम भारत में सौराष्ट्र तक प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत शामिल किया।
■●गिरनार अभिलेख (१५० ई. पू.) के अनुसार इस प्रदेश में पुण्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था। इसने सुदर्शन झील का निर्माण किया।
●दक्षिण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी कर्नाटक तक विजय प्राप्त की।
चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कन्धार, बलूचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का मैदान, बिहार, बंगाल, गुजरात था तथा विन्ध्य और कश्मीर के भू-भाग सम्मिलित थे, लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना साम्राज्य उत्तर-पश्‍चिम में ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत किया था। अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चला गया था। २९८ ई. पू. में उपवास द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना शरीर त्याग दिया।

बिन्दुसार (२९८ ई. पू. से २७३ ई. पू.)- 


यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था जिसे वायु पुराण में मद्रसार और जैन साहित्य में सिंहसेन कहा गया है। यूनानी लेखक ने इन्हें अभिलोचेट्‍स कहा है। यह २९८ ई. पू. मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता दुर्धरा थी। थेरवाद परम्परा के अनुसार वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था।
बिन्दुसार के समय में भारत का पश्‍चिम एशिया से व्यापारिक सम्बन्ध अच्छा था। बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकस ने डायमाइकस नामक राजदूत भेजा था। मिस्र के राजा टॉलेमी के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत मौर्य दरबार में बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था।
दिव्यादान के अनुसार बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे, जिनका दमन करने के लिए पहली बार अशोक को, दूसरी बार सुसीम को भेजा
प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया। प्रति में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्‍त किए। दिव्यादान के अनुसार अशोक अवन्ति का उपराजा था। बिन्दुसार की सभा में ५०० सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद्‍ थी जिसका प्रधान खल्लाटक था। बिन्दुसार ने २५ वर्षों तक राज्य किया अन्ततः २७३ ई. पू. उसकी मृत्यु हो गयी।
अशोक (२७३ ई. पू. से २३६ ई. पू.)-

राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे। इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद २६९ ई. पू. में हुआ था।
वह २७३ ई. पू. में सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने ९९ भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है।
दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी।
सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ। दिव्यादान में उसकी एक पत्‍नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत्‍नी का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी। बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध की चर्चा है।
अशोक का कलिंग युद्ध
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष २६१ ई. पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत्‌ अभिषेक हुआ। तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्‍ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया। उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ। उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया।
सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्‍चात्‌ मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था। दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्‍त घोषित कर दिया था।
अशोक एवं बौद्ध धर्म
  • कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्‍तिगत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया।
  • अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्‍न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया।
  • दिव्यादान में उसकी एक पत्‍नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत्‍नी करूणावकि है। दिव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है।
  • विद्वानों अशोक की तुलना विश्‍व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है।
अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्‍वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।"
  • अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया।

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-

(अ) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ब) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्‍ति, (स) धर्म महापात्रों की नियुक्‍ति, (द) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (य) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (र) लोकाचारिता के कार्य, (ल) धर्मलिपियों का खुदवाना, (ह) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।
अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया। वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्‍त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्‍त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया।
अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धर्म महापात्र कहा गया था। इसका कर्य विभिन्‍न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था।
अशोक के शिलालेख
अशोक के १४ शिलालेख विभिन्‍न लेखों का समूह है जो आठ भिन्‍न-भिन्‍न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-
(१) धौली- यह उड़ीसा के पुरी जिला में है।
(२) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है।
(३) मान सेहरा- यह हजारा जिले में स्थित है।
(४) कालपी- यह वर्तमान उत्तरांचल (देहरादून) में है।
(५) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है।
(६) सोपरा- यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है।
(७) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है।
(८) गिरनार- यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है।
अशोक के लघु शिलालेख
अशोक के लघु शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है। ये निम्नांकित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-
(१) रूपनाथ- यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है।
(२) गुजरी- यह मध्य प्रदेश के दतुया जिले में है।
(३) भबू- यह राजस्थान के जयपुर जिले के विराटनगर (बैराठ) में है।
(४) मास्की- यह रायचूर जिले में स्थित है।
(५) सहसराम- यह बिहार के शाहाबाद जिले में है।
धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की। अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्‍त निकाय में दिया गया है।
अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा १३वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे।
दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाण्ड्‍य, सतिययुक्‍त केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं।
अशोक के अभिलेख
अशोक के अभिलेखों में शाहनाज गढ़ी एवं मान सेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं। तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं। इसके अतिरिक्‍त अशोक के समस्त शिलालेख लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं। अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है।
अभी तक अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। सर्वप्रथम १८३७ ई. पू. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी।
रायपुरबा- यह भी बिहार राज्य के चम्पारण जिले में स्थित है।
प्रयाग- यह पहले कौशाम्बी में स्थित था जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया था।
अशोक के लघु स्तम्भ लेख
सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-
१. सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है।
२. सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है।
३. रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है।
४. कौशाम्बी- इलाहाबाद के निकट है।
५. निग्लीवा- नेपाल के तराई में है।
६. ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है।
७. सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है।
८. जतिंग रामेश्‍वर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है।
९. एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
१०. गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है।
११. पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है।
१२. राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
१३. अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है।
१४. सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है।
१५. नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है।
अशोक के गुहा लेख
दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं। इन सभी की भाषा प्राकृत तथा ब्राह्मी लिपि में है। केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है।
तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है।
अशोक के स्तम्भ लेख
अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्‍न स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। इन स्थानों के नाम हैं-
(१) दिल्ली तोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था। यह मध्य युगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
(२) दिल्ली मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया।
(३) लौरिया अरराज तथा लौरिया नन्दगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है।
सैन्य व्यवस्था- सैन्य व्यवस्था छः समितियों में विभक्‍त सैन्य विभाग द्वारा निर्दिष्ट थी। प्रत्येक समिति में पाँच सैन्य विशेषज्ञ होते थे।
पैदल सेना, अश्‍व सेना, गज सेना, रथ सेना तथा नौ सेना की व्यवस्था थी।
सैनिक प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी अन्तपाल कहलाता था। यह सीमान्त क्षेत्रों का भी व्यवस्थापक होता था। मेगस्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना छः लाख पैदल, पचास हजार अश्‍वारोही, नौ हजार हाथी तथा आठ सौ रथों से सुसज्जित अजेय सैनिक थे।
प्रान्तीय प्रशासन
चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन संचालन को सुचारु रूप से चलाने के लिए चार प्रान्तों में विभाजित कर दिया था जिन्हें चक्र कहा जाता था। इन प्रान्तों का शासन सम्राट के प्रतिनिधि द्वारा संचालित होता था। सम्राट अशोक के काल में प्रान्तों की संख्या पाँच हो गई थी। ये प्रान्त थे-
प्रान्त राजधानी
1.प्राची (मध्य देश)- पाटलिपुत्र
2.उत्तरापथ - तक्षशिला
2.दक्षिणापथ - सुवर्णगिरि
4.अवन्ति राष्ट्र - उज्जयिनी
5.कलिंग - तोलायी
●प्रान्तों (चक्रों) का प्रशासन राजवंशीय कुमार (आर्य पुत्र) नामक पदाधिकारियों द्वारा होता था।
●कुमाराभाष्य की सहायता के लिए प्रत्येक प्रान्त में महापात्र नामक अधिकारी होते थे।
●शीर्ष पर साम्राज्य का केन्द्रीय प्रभाग तत्पश्‍चात्‌ प्रान्त आहार (विषय) में विभक्‍त था।
●ग्राम प्रशासन की निम्न इकाई था, १०० ग्राम के समूह को संग्रहण कहा जाता था।
●आहार विषयपति के अधीन होता था।
● जिले के प्रशासनिक अधिकारी स्थानिक था।
●गोप दस गाँव की व्यवस्था करता था।
नगर प्रशासन:-
● मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य शासन की नगरीय प्रशासन छः समिति में विभक्‍त था।
●प्रथम समिति- उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करता था।
●द्वितीय समिति- विदेशियों की देखरेख करता है।
●तृतीय समिति- जनगणना।
●चतुर्थ समिति- व्यापार वाणिज्य की व्यवस्था।
●पंचम समिति- विक्रय की व्यवस्था, निरीक्षण।
●षष्ठ समिति- बिक्री कर व्यवस्था।
●नगर में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा अपराधों पर नियन्त्रण रखने हेतु पुलिस व्यवस्था थी जिसे रक्षित कहा जाता था।
●यूनानी स्रोतों से ज्ञात होता है कि नगर प्रशासन में तीन प्रकार के अधिकारी होते थे-
1.एग्रोनोयोई (जिलाधिकारी),
2.एण्टीनोमोई (नगर आयुक्‍त),
3.सैन्य अधिकार।


मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था:-

     मौर्य साम्राज्य के प्रशासन का स्वरूप केन्द्रीकृत था। अर्थशास्त्र के आधार पर प्रशासन के सभी पहलूओं में राजा का विचार और आदेश सबसे ऊपर था। चाणक्य के अनुसार राज्य के सात अवयव हैं- राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, बल तथा मित्र। इन सप्तांगों में चाणक्य राजा को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है तथा शेष को अपने अस्तित्व के लिए राजा पर ही निर्भर बताता है। अशोक के शिलालेखों और अर्थशास्त्र में मंत्रिपरिषद का वर्णन हुआ है। राजा अपने सभी राज कार्यों का संचालन अमात्यों, मन्त्रियों तथा अधिकारियों द्वारा करता था। अमात्य एक सामान्य पदनाम था जिससे राज्य के सभी पदाधिकारियों का ज्ञान होता था। प्रशासन के मुख्य अधिकारियों का चुनाव राजा इन अमात्यों की सहायता से ही करता था।
प्रशासनिक सुविधा के लिए केन्द्रीय प्रशासनिक तंत्र को अनेक भागों में विभक्त किया गया था, जिसे तीर्थ कहा जाता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों (विभागों) और उसके प्रमुख की चर्चा की है-
(1) मन्त्री और पुरोहित (धर्माधिकारी)
(2) समाहर्ता (राजस्व विभाग का प्रधान अधिकारी)
(3) सन्निधाता (राजकीय कोषाध्यक्ष)
(4) सेनापति (युद्ध विभाग)
(5) युवराज (राजा का उत्तराधिकारी)
(6) प्रदेष्टा (फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश)
(7) नायक (सेना का संचालक)
(8) कर्मान्तिक (उद्योग धन्धों का प्रधान निरीक्षक)
(9) व्यवहारिक (दीवानी न्यायालय का न्यायधीश)
(10) मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष (मन्त्रिपरिषद का अध्यक्ष)
(11) दण्डपाल (सैन्य अधिकारी)
(12) अन्तपाल (सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक)
(13) दुर्गपाल (दुर्गों का प्रबन्धक)
(14) नागरक (नगर का मुख्य अधिकारी)
(15) प्रशस्ता (राजकीय आज्ञाओं को लिखने वाला प्रमुख अधिकारी)
(16) दौवारिक (राजमहलों की देख-रेख करने वाला)
(17) अन्र्वंशिक (सम्राट की अंगरक्षक सेना का मुख्य अधिकारी)
(18) आटविक (वन विभाग प्रमुख)
ये सभी अधिकारी उच्च श्रेणी के थे। इनके अधिकारियों का वर्णन चाणक्य ने अर्थशास्त्र में किया हैं, जिन्हें अध्यक्ष कहा जाता था। ये अध्यक्ष निम्नलिखित हैं-
(1) पण्याध्यक्ष (वाणिज्य अध्यक्ष)
(2) सीताध्यक्ष (राजकीय कृषि विभाग अध्यक्ष)
(3) सूराध्यक्ष
(4) सूनाध्यक्ष (बूचड़खाने का अध्यक्ष)
(5) गणिकाध्यक्ष (वेश्याओं का अध्यक्ष एवं निरीक्षक)
(6) आकराध्यक्ष (खानों का अध्यक्ष)
(7) कोष्ठागाराध्यक्ष
(8) कुप्याध्यक्ष (वन एवं सम्पदा का अध्यक्ष)
(9) आयुधागाराध्यक्ष (अस्त्र-शस्त्र विभाग का अध्यक्ष)
(10) शुल्काध्यक्ष
(11) सूत्राध्यक्ष (कताई-बुनाई का अध्यक्ष)
(12) लोहाध्यक्ष (धातु विभाग का अध्यक्ष)
(13) लक्षणाध्यक्ष (छापेखाने का अध्यक्ष)
(14) सुवर्णाध्यक्ष
(15) गोध्यक्ष (पशुधन विभाग का अध्यक्ष)
(16) वीवीताध्यक्ष (चारागाह का अध्यक्ष)
(17) मुद्राध्यक्ष (पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष)
(18) नवाध्यक्ष (जहाजरानी विभागध्यक्ष)
(19) पत्तनाध्यक्ष (बन्दरगाह अध्यक्ष)
(20) संस्थाध्यक्ष (व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष)
(21) देवताध्यक्ष (धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष)
(22) रूपदर्शक (सिक्कों की जाँच करने वाला अधिकारी)
  • मौर्य राजाओं ने सेना बहुत संगठित और बड़े आकार में व्यवस्थित की थी। चाणक्य ने ’चतुरंगबल’ (पैदलसैनिक, घुड़सवार सेना, हाथी और युद्ध रथ) को सेना का प्रमुख भाग बताया है।
  • राजा की निरंकुशता एवं केन्द्रीय प्रशासन की पकड़ को मजबूत बनाने के लिए एक संगठित गुप्तचर प्रणाली का गठन किया गया था। गुप्तचरों में स्त्री तथा पुरुष दोनों होते थे तथा भेष बदलकर कार्य करते थे, जैसे-संन्यासी, छात्र, व्यापारी इत्यादि।
  • मौर्य काल में केन्द्र से लेकर स्थानीय स्तर तक दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए अलग-अलग न्यायालयों की जानकारी मिलती है। राजा न्याय का भी सर्वोच्च अधिकारी होता था। अर्थशास्त्र में दो तरह के न्यायालयों की चर्चा की गई है-धर्मस्थनीय तथा कंटकशोधन। धर्मस्थीय न्यायलय के द्वारा दीवानी अर्थात, स्त्रीधन या विवाह सम्बन्धी विवादों का निपटारा तथा कंटशोधन न्यायालय द्वारा फौजदारी मामले अर्थात हत्या तथा मारपीट जैसी समस्याओं का निपटारा होता था। विवादों का विधिवत पंजीकरण होता था तथा सभी को गवाही देने और अपना पक्ष रखने का अवसर प्राप्त होता था।
  • प्रान्तीय प्रशासन का मुख्य या प्रधान राजपरिवार का सदस्य होता था जो प्रान्तपति, गवर्नर या वायसराय होता था। उदाहरण के लिए, राजा  बनक े पहले अशोक उज्जयनी का गर्वनर था। दिव्यावदान के अनुसार अशोक ने अपने पुत्र कुणाल को तक्षशिला का राज्यपाल बनाया था। प्रान्तों का प्रशासन चलाने में कुमार (राजकुमार) की सहायता महामात्य और मंत्रिपरिषद करते थे।
  • जनपद और गाँवों के प्रशासन नागरिक आधार पर होते थे और उनमें कई गाँवों के संगठन होते थे किन्तु साथ ही साथ हर ग्राम की अपनी अलग प्रशासनिक व्यवस्था थी। चाणक्य के अनुसार जनपद स्तर पर प्रदेष्टा नामक अधिकारी पर पूरे जनपद के काम-काज की जिम्मेदारी थी तथा दूसरे अधिकारियों में राजुक तथा युक्त थे। ’प्रादेशिक’ सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी था, जो मण्डल का प्रधान होता था। उसका कार्य आजकल के संभागीय आयुक्त जैसा था। ’राजुक’ भूमि की पैमाईश (नाप जोख) का कार्य करता था। ’युक्त’ जिलाधिकारी थे। इन्हें ग्रामिक कहते थे। गोप और स्थानिक दो अधिकारी ग्राम और जनपद के बीच मध्यस्यता का कार्य करते थे। गाँव के मुखिया को ग्रामणी कहते थे तथा ग्राम स्तर पर प्रशासन चलाने और समस्याओं को सुलझाने के लिए स्थानीय निवासियों को स्वतन्त्रता प्राप्त थी। ग्रन्थों के अनुसार उसने 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया। भरहूत, साँची तथा अमरावती के स्तूप उनके द्वारा बनवाये गये स्मरणीय स्तूप हैं। जैन धर्म को भी मौर्य सम्राटों ने संरक्षण दिया। चन्द्रगुपत मौर्य ने भद्रबाहू से जैन धर्म की दीक्षा ली तथा अपना साम्राज्य त्यागकर कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में जाकर जैन परम्परा के अनुसार संलेखना विधि द्वारा प्राण त्याग दिये थे। अशोक का एक उत्तराधिकारी सम्प्रति भी जैन धर्म का अनुयायी था।
  • मौर्य युग में सामान्य जनता की भाषा पाली थी। सम्भवतः इसीलिए अशोक ने अपने अभिलेख पाली भाषा में ही लिखवाये और पाली को राजभाषा बनाया। संस्कृत भाषा उच्च वर्ण एवं शिक्षित समुदाय की भाषा थी।
मौर्यकालीन कला:- इस काल में कला के दो स्वरूप मिलते हैं
  1. राजकीय कला या दरबारी कला
  2. लोककला
  • राजकीय कला में मौर्य प्रसाद, अशोक द्वारा स्थापित स्तंभ आदि का वर्णन किया जा सकता है। लोककला के अन्तर्गत परखमकयक्ष, दीदारगंज की चामर ग्राहिणी और बेसनगर की यक्षिणी आदि आते हैं। वस्तुतः लोककला आम लोगों की कलाओं का प्रतिनिधित्व करती है। लोककला के रूपों की परंपरा पूर्व मौर्यकाल से काष्ठ और मिट्टी में चली आई थी, किन्तु अब उसे पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया।
  • मौर्य काल के विशिष्ट नमूने अशोक के एकाश्मक (Monolithic)  स्तंभ है जो कि अशोक ने धम्म प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित किए थे। इनकी संख्या 20 से ज्यादा है तथा ये बलुआ पत्थर के बने हुए हैं। इन एकाश्मक (Monolithic)  स्तंभों को काटकर वर्तमान रूप देना और इन पर चमकीली पाॅलिश करना एवं देश के विभिन्न क्षेत्रों में पहुँचाना, मौर्यकालीन शिल्पकला तथा इंजीनियरिंग का अनुपम उदाहरण है।
  • इन स्तंभों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला स्तंभ का ऊपरी हिस्सा जिस पर मुख्यतः सिंह, बैल, हाथी आदि की आकृति होती थी तथा दूसरा भाग शीर्ष के नीचे का है।
  • सारनाथ स्तंभ की चमकीली पाॅलिश, घंटाकृति तथा शीर्ष भाग में पशु आकृति के कारण पाश्चात्य विद्वानों ने अपना मत दिया है कि यह कला ईरानी कला से प्रभावित है। चैकी पर हंसों की उकेरी हुई आकृतियों और अन्य सज्जाओं में यूनानी प्रभाव भी दिखाई देता है।
  • भारतीय इतिहासकारों का मानना है कि अशोक स्तंभ की कला का स्रोत भारतीय है क्योंकि स्तंभों पर की गयी पाॅलिश भारतीय संस्कृति में पहले से चली आ रही है तथा मौर्य स्तंभो के शीर्ष पर पशुमूर्ति है जबकि ईरानी स्तंभों पर मानव मूर्ति।
  • मौर्यकाल की कलाओं में स्तूप निर्माण भी अद्वितीय कला है। वस्तुतः स्तूप का निर्माण अशोक के काल से प्रारंभ हुआ क्योंकि उसने स्तूप निर्माण की परंपरा को प्रोत्साहन दिया। शुंगों के काल में साँची स्तूप का विस्तार हुआ। अशोक कालीन स्तूपों की विशेषता अर्द्धगोलाकार, तोरण, प्रदक्षिणापथ, मेधि, हर्मिका छत्र, जातक कथाओं का उत्कीर्णन आदि है। वस्तुतः स्तूप के निर्माण में ईटों का प्रयोग किया गया है।
  • मौर्यकला में गुहा निर्माण एक विशिष्ट कला थी जो उस समय की एक अनोखी खोज थी। चट्टानों को काटकर गुहा बनाने का कार्य व्यापक स्तर पर हुआ। अशोक के काल में और बाद में चट्टानों को काटकर कंदरओं का निर्माण किया गया (बिहार) के निकट बराबर की पहाडि़यों में अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में सुदामा गुहा आजीविकों को दान में दिया।
  • अशोक के काल में ही मूलरूप से चैत्य गृह का विकास हुआ और इस शैली का संपूर्ण विकास महाराष्ट्र के कन्हेरी और कार्ले चैत्यगृहों में दिखाई पड़ती है।

  • अशोक के 12वें शिलालेख में तीन अन्य अधिकारियों की चर्चा मिलती हैं-
  • धम्ममहामात्र – इसका मुख्य कार्य विभिनन सम्प्रदायों के बीच सामंजस्य बनाये रखना तथा इस बात की निगरानी करना था कि किसी को अनावश्यक दण्ड या यातना ना मिले।
  • ब्रजभूमिक– गोपों की देख-रेख करने वाला अधिकारी था जो पशुओं की रक्षा एवं वृद्धि के लिए प्रयास करता था।
  • स्वयाध्यक्ष -यह महिलाओं के नैतिक आचरण की देख-रेख करने वला अधिकारी था। इसका कार्य सम्राट के अन्तःपुर तथा महिलाओं के बीच धम्मप्रचार भी करना था।
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था
  • मौर्यकाल में कृषि आर्थिक व्यवस्था का आधार थी तथा इस काल में प्रथम बार दासों को कृषि कार्य में लगाया गया। भूमि राजा तथा कृषक दोनों के अधिकार में होती थी। मेगस्थनीज के अनुसार भूमि का अधिकांश भाग सिंचित था। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है सौराष्ट्र प्रांत में सुदर्शन झील का निर्माण कार्य चन्द्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने करवाया था।
  • मौर्यकाल में दो प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है-राजकीय भूमि तथा निजी भूमि।
  • कर (Tax) के रूप में भाग, बलि, हिरण्य आदि का प्रचलन था जिसमें उपज का एक बड़ा भाग लिया जाता था।
  • उद्योग-धंधों की संस्थाओं को श्रेणी कहा जाता था। श्रेणियों के न्यायालय होते थे जो व्यापार व्यवसाय संबंधी झगड़ों का निपटारा किया करते थे। श्रेणी न्यायालय के प्रधान को महाश्रेष्ठि कहा जाता था।
प्रमुख व्यापारिक संगठन
श्रेणी    –        शिल्पियों का संगठन
निगम    –      देनदारों/महाजनों का संगठन
सार्थवाह  –    कारवाँ व्यापारियों का प्रमुख व्यापारी (अनाज से संबंधित)
  • मौर्यकाल में आंतरिक एवं वाह्य दोनों ही प्रकार से व्यापार होता था। मेगस्थनीज ने एग्रोनोमोई नामक अधिकारी की चर्चा की है जो मार्ग निर्माण का विशेष अधिकारी था। इस समय वाह्य व्यापार सीरिया, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ होता था। यह व्यापार पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ तथा पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति के बंदरगाहों द्वारा किया जाता था।
  • मौर्यकाल तक आते-आते व्यापार-व्यवसाय में नियमित सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। ये सिक्के-सोने, चाँदी, तथा ताँबे के बने होते थे। स्वर्ण सिक्कों को निष्क और सुवर्ण कहा जाता था। चांदी के सिक्कों को कार्षापण या धारण कहा जाता था। ताँबे के सिक्के ’माषक’ कहलाते थे तथा छोटे-छोटे तांबे के सिक्के कोकणि कहलाते थे। मौर्यकालीन सिक्के मुख्यतः चाँदी और ताँबे में ढाले गये हैं। प्रधान सिक्का ’पण’ होता था जिसे ’रूप्पयक’ भी कहा गया है। अर्थशास्त्र में राजकीय टकसाल का भी उल्लेख मिलता है जिसका अध्यक्ष ’लक्षणाध्यक्ष’ होता था। मुद्राओं का परीक्षण करने वाले अधिकारी को ’रूप दर्शक’ कहा जाता था।
मौर्यकालीन समाज
  • मौर्यकालीन समाज की संरचना का ज्ञान कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज की ’इण्डिका’, अशोक के अभिलेख एवं रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख (प्रांतीय शासन की जानकारी) से होती है।
  • परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी, किन्तु मौर्य काल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं थी तथा बौद्ध एवं यूनानी साक्ष्यों के अनुसार समाज में सती प्रथा विद्यमान थी। बाहर न जाने वाली स्त्रियों को चाणक्य ने ’अनिष्कासिनी’ कहा है। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृति करने वाली स्त्री को ’रूपजीवा’ कहा जाता था।
  • कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में 9 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है।
  • मेगस्थनीज के अनुसार मौर्यकाल में दास प्रथा का अस्तित्व नहीं था। ख्अहितक-अस्थायी दास,
  • मौर्य काल में वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा आजीवक प्रमुख थे। मौर्य सम्राटों में चन्द्रगुप्त जैन अनुयायी, बिन्दुसार आजीवक तथा अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था, परन्तु अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता थी तथा किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। बौद्ध धर्म को अशोक ने अपने शासनकाल में राजकीय संरक्षण दिया। बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार अशोक ने देश और विदेशों में किया। अशोक के समय में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ

अशोक के परवर्ती मौर्य सम्राट- 

●मगध साम्राज्य के महान मौर्य सम्राट अशोक की मृत्यु २३७-२३६ ई. पू. में (लगभग) हुई थी।
●अशोक के उपरान्त अगले पाँच दशक तक उनके निर्बल उत्तराधिकारी शासन संचालित करते रहे।

अशोक के उत्तराधिकारी- 

●जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन के बारे में परस्पर विरोधी विचार पाये जाते हैं।
● पुराणों में अशोक के बाद ९ या १० शासकों की चर्चा है, जबकि दिव्यादान के अनुसार ६ शासकों ने असोक के बाद शासन किया।
● अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य पश्‍चिमी और पूर्वी भाग में बँट गया।
● पश्‍चिमी भाग पर कुणाल शासन करता था, जबकि पूर्वी भाग पर सम्प्रति का शासन था लेकिन १८० ई. पू. तक पश्‍चिमी भाग पर बैक्ट्रिया यूनानी का पूर्ण अधिकार हो गया था।
●पूर्वी भाग पर दशरथ का राज्य था। वह मौर्य वंश का अन्तिम शासक है।
मौर्य साम्राज्य का पतन
●मौर्य सम्राट की मृत्यु (२३७-२३६ई. पू.) के उपरान्त करीबन दो सदियों (३२२-१८४ई.पू.) से चले आ रहे शक्‍तिशाली मौर्य साम्राज्य का विघटन होने लगा।
●अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र ने कर दी। इससे मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया।
●इसके पतन के कारण निम्न हैं-
1.अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी,
2.प्रशासन का अत्यधिक केन्द्रीयकरण,
3..राष्ट्रीय चेतना का अभाव, 
4.आर्थिक एवं सांस्कृतिक असमानताएँ 
5.प्रान्तीय शासकों के अत्याचार,
6.करों की अधिकता।
विभिन्न इतिहासकारों ने मौर्य वंश का पतन के लिए भिन्न-भिन्न कारणों का उल्लेख किया है-
  • हर प्रसाद शास्त्री - धार्मिक नीति (ब्राह्मण विरोधी नीति के कारण)
  • हेमचन्द्र राय चौधरी - सम्राट अशोक की अहिंसक एवं शान्तिप्रिय नीति।
  • डी. डी.कौशाम्बी - आर्थिक संकटग्रस्त व्यवस्था का होना।
  • डी.एन.झा - निर्बल उत्तराधिकारी
  • रोमिला थापर - मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए केन्द्रीय शासन अधिकारी तन्त्र का अव्यवस्था एवं अप्रशिक्षित होना।


मौर्य शासन - 


●भारत में सर्वप्रथम मौर्य वंश के शासनकाल में ही राष्ट्रीय राजनीतिक एकता स्थापित हुइ थी।
●मौर्य प्रशासन में सत्ता का सुदृढ़ केन्द्रीयकरण था परन्तु राजा निरंकुश नहीं होता था।
● मौर्य काल में गणतन्त्र का ह्रास हुआ और राजतन्त्रात्मक व्यवस्था सुदृढ़ हुई।
●कौटिल्य ने राज्य सप्तांक सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, जिनके आधार पर मौर्य प्रशासन और उसकी गृह तथा विदेश नीति संचालित होती थी -राजा, अमात्य जनपद, दुर्ग, कोष, सेना और, मित्र।

शुंग राजवंश


●पुष्यमित्र शुंग- 

मौर्य साम्राज्य के अन्तिम शासक वृहद्रथ की हत्या करके १८४ ई.पू. में पुष्यमित्र ने मौर्य साम्राज्य के राज्य पर अधिकार कर लिया।
●जिस नये राजवंश की स्थापना की उसे पूरे देश में शुंग राजवंश के नाम से जाना जाता है।
● शुंग ब्राह्मण थे।
●बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के फ़लस्वरुप अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने के बाद उन्होंने पुरोहित का कर्म त्यागकर सैनिक वृति को अपना लिया था।
● पुष्यमित्र अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रथ का प्रधान सेनापति था।

पुष्यमित्र शुंग के पश्चात इस वंश में नौ शासक और हुए जिनके नाम थे -अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, भद्रक, तीन अज्ञात शासक, भागवत और देवभूति।

●एक दिन सेना का निरिक्षण करते समय वृह्द्र्थ की धोखे से हत्या कर दी।
●उसने ‘सेनानी’ की उपाधि धारण की थी।
● दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र इसी रूप में विख्यात था तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी।
●शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ था मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना इसी युग में हुई थी।
●अतः उसने निस्संदेह राजत्व को प्राप्त किया था।
● परवर्ती मौर्यों के निर्बल शासन में मगध का सरकारी प्रशासन तन्त्र शिथिल पड़ गया था एवं देश को आन्तरिक एवं बाह्य संकटों का खतरा था।
●ऐसी विकट स्थिति में पुष्य मित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर जहाँ एक ओर यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की और देश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदेशों की जो अशोक के शासनकाल में अपेक्षित हो गये थे।
● इसी कारण इसका काल वैदिक प्रतिक्रिया अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता है।
●शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति की हत्या करके उसके सचिव वसुदेव ने ७५ ई. पू. कण्व वंश की नींंव डाली।
शुंगकालीन संस्कृति के प्रमुख तथ्य
  • शुंग राजाओं का काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण काल माना जाता है।
  • मानव आकृतियों के अंकन में कुशलता दिखायी गयी है। एक चित्र में गरुङ सूर्य तथा दूसरे में श्रीलक्ष्मी का अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है।
  • पुष्यमित्र शुंग ने ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया। शुंग के सर्वोत्तम स्मारक स्तूप हैं।
  • बोधगया के विशाल मन्दिर के चारों और एक छोटी पाषाण वेदिका मिली है। इसका निर्माण भी शुंगकाल में हुआ था। इसमें कमल, राजा, रानी, पुरुष, पशु, बोधिवृक्ष, छ्त्र, त्रिरत्न, कल्पवृक्ष, आदि प्रमुख हैं।
  • स्वर्ण मुद्रा निष्क, दिनार, सुवर्ण, मात्रिक कहा जाता था। ताँबे के सिक्‍के काषार्पण कहलाते थे। चाँदी के सिक्‍के के लिए ‘पुराण’अथवा ‘धारण’ शब्द आया है।
  • शुंग काल में समाज में बाल विवाह का प्रचलन हो गया था। तथा कन्याओं का विवाह आठ से १२ वर्ष की आयु में किया जाने लगा था।
  • शुंग राजाओं का काल वैदिक काल की अपेक्षा एक बड़े वर्ग के लोगों के मस्तिष्क परम्परा, संस्कृति एवं विचारधारा को प्रतिबिम्बित कर सकने में अधिक समर्थ है।
  • शुंग काल के उत्कृष्ट नमूने बिहार के बोधगया से प्राप्त होते हैं। भरहुत, सांची, बेसनगर की कला भी उत्कृष्ट है।
  • महाभाष्य के अलावा मनुस्मृति का मौजूदा स्वरुप सम्भवतः इसी युग में रचा गया था। 
  • विद्वानो के अनुसार शुंग काल में ही महाभारत के शान्तिपूर्ण तथा अश्‍वमेध का भी परिवर्तन हुआ।
  •  माना जाता है कि पुष्यमित्र ने बौद्ध धर्मावलम्बियों पर बहुत अत्याचार किया, लेकिन सम्भवतः इसका कारण बौद्धों द्वारा विदेशी आक्रमण अर्थात यवनों की मदद करना था।
  •  पुष्यमित्र ने अशोक द्वारा निर्माण करवाये गये ८४ हजार स्तूपों को नष्ट करवाया। 
  • बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अनुसार यह भी सच है कि उसने कुछ बौद्धों को अपना मन्त्री नियुक्‍त कर रखा था। 
  • पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने ३६ वर्षों तक शासन किया। इस प्रकार उसका काल ई.पू से १४८ई.पू.तक माना जाता है।

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी


अग्निमित्र- पुष्यमित्र की मृत्यु (१४८इ.पू.) के पश्‍चात उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ। वह विदिशा का उपराजा था। उसने कुल ८ वर्षों तक शासन कीया।
वसुज्येष्ठ या सुज्येष्ठ - अग्निमित्र के बाद वसुज्येष्ठ राजा हुआ।
वसुमित्र - शुंग वंश का चौथा राजा वसुमित्र हुआ।
● उसने यवनों को पराजित किया था। एक दिन नृत्य का आनन्द लेते समय मूजदेव नामक व्यक्‍ति ने उसकी हत्या कर दी। उसने १० वर्षों तक शाशन किय।
●वसुमित्र के बाद भद्रक, पुलिंदक, घोष तथा फिर वज्रमित्र क्रमशः राजा हुए।

●इसके शाशन के १४वें वर्ष में तक्षशिला के यवन नरेश एंटीयालकीड्स का राजदूत हेलियोंडोरस उसके विदिशा स्थित दरबार में उपस्थित हुआ था।
●वह अत्यन्त विलासी शाशक था। उसके अमात्य वसुदेव ने उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार शुंग वंश का अन्त हो गया।
महत्व- इस वंश के राजाओं ने मगध साम्रज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यव्स्था की स्थापना कर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को कुछ समय तक रोके रखा। मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने वैदिक संस्कृति के आदर्शों की प्रतिष्ठा की। यही कारण है कि उसका शासनकाल वैदिक पुनर्जागरण का काल माना जाता है।
★विदर्भ युद्ध-

मालविकामित्रम के अनुसार पुष्यमित्र के काल में लगभग १८४इ.पू.में विदर्भ युद्ध में पुष्यमित्र की विजय हुई और राज्य दो भागों में ब दिया गया। वर्षा नदी दोनों राज्यों कीं सीमा मान ली गई। दोनो भागों के नरेश ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया तथा इस राज्य का एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ। पुष्यमित्र का प्रभाव क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया।
यवनों का आक्रमण -

●यवनों को मध्य देश से निकालकर सिन्धु के किनारे तक खदेङ दिया और पुष्यमित्र के हाथों सेनापति एवं राजा के रूप में उन्हें पराजित होना पङा।
● यह पुष्यमित्र के काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।

पुष्यमित्र का शासन प्रबन्ध- 


●साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रख सकने में सफ़ल रहा।
●पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पश्‍चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध तक फ़ैला हुआ था।
●दिव्यावदान और तारानाथ के अनुसार जालन्धर और स्यालकोट पर भी उसका अधिकार था।
●साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार या राजकुल के लोगो को राज्यपाल नियुक्‍त करने की परम्परा चलती रही।
●पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह -शाशक नियुक्‍त कर रखा था। और उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था।
●धनदेव कौशल का राज्यपाल था। राजकुमार जी सेना के संचालक भी थे।
● इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी।
● इस काल तक आते-आते मौर्यकालीन केन्द्रीय नियन्त्रण में शिथिलता आ गयी थी तथा सामंतीकरण की प्रवृत्ति सक्रिय होने लगी थीं।

कण्व राजवंश


●शुंग वंश के अन्तिम शासक देवभूति के मन्त्रि वसुदेव ने उसकी हत्या कर सत्ता प्राप्त कर कण्व वंश की स्थापना की।
●कण्व वंश ने ७५ इ.पू. से ३० इ.पू. तक शासन किया। वसुदेव पाटलिपुत्र के कण्व वंश का प्रवर्तक था।
● वैदिक धर्म एवं संस्कृति संरक्षण की जो परम्परा शुंगो ने प्रारम्भ की थी। उसे कण्व वंश ने जारी रखा।
●इस वंश का अन्तिम सम्राट सुशमी कण्य अत्यन्त अयोग्य और दुर्बल था। और मगध क्षेत्र संकुचित होने लगा।
● कण्व वंश का साम्राज्य बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित हो गया और अनेक प्रान्तों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया तत्पश्चात उसका पुत्र नारायण और अन्त में सुशमी जिसे सातवाहन वंश के प्रवर्तक सिमुक ने पदच्युत कर दिया था।
●इस वंश के चार राजाओं ने ७५इ.पू.से ३०इ.पू.तक शासन किया।

आन्ध्र व कुषाण वंश


●मगध में आन्ध्रों का शासन था या नहीं मिलती है। कुषाणकालीन अवशेष भी बिहार से अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
●कुछ समय के पश्चात प्रथम सदी इ. में इस क्षेत्र में कुषाणों का अभियान हुआ।
●कुषाण शासक कनिष्क द्वारा पाटलिपुत्र पर आक्रमण किये जाने और यह के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष को अपने दरबार में प्रश्रय देने की चर्चा मिलती है।
● कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद मगध पर लिच्छवियों का शासन रहा। अन्य विद्वान मगध पर शक मुण्डों का शासन मानते हैं।

गुप्त साम्राज्य:-


मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया।
  • मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं।
  • मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।
  • गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।
गुप्त वंश की स्थापना
गुप्त राजवंश की स्थापना महाराजा गुप्त ने लगभग २७५ई.में की थी। उनका वास्तविक नाम श्रीगुप्त था। गुप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र घटोत्कच था।
चन्द्र्गुप्त के सिंहासनारोहण के अवसर पर (३०२ई.) को गुप्त सम्वत भी कहा गया है। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मृग शिखावन में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। तथा मन्दिर के व्यय में २४ गाँव को दान दिये थे।
श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था। प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था।

घटोत्कच- 

घटोत्कच श्रीगुप्त का पुत्र था। २८० ई. पू. से ३२० ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी।

चन्द्रगुप्त प्रथम- 


यह घटोत्कच का उत्तराधिकारी था, जो ३२० ई. में शासक बना।
  • चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में सबसे पहला शासक था जो प्रथम स्वतन्त्र शासक है। यह विदेशी को विद्रोह द्वारा हटाकर शासक बना।
  • इसने नवीन सम्वत (गुप्त सम्वत) की स्थापना की। इसने लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह सम्बन्ध स्थापित किया।
  • चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसका शासन काल (३२० ई. से ३५० ई. तक) था।
  • पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है।
चन्द्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि सम्बन्ध
●चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया।
●वह एक दूरदर्शी सम्राट था। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया।
●स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया।
● कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया।
●लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया।
●हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।
●उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्‍कों का चलन करवाया।
●इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया।
●राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की।

समुद्रगुप्त- 


●चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद ३५० ई. में उसका पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा।
●समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था।
●सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें परक्रमांक कहा गया है।
● समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
●हरिषेण समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।
  • समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
  • विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी।
●समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था।
●उसे कविराज भी कहा गया है। वह महान संगीतज्ञ था जिसे वीणा वादन का शौक था।
●इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्‍त किया था।
●काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है।
●उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया।
●समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था लेकिन वह हिन्दू धर्म मत का पालन करता था।
● वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य- 

●समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्‍चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था।
●कश्मीर, पश्‍चिमी पंजाब, पश्‍चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे।
●दक्षिणापथ के शासक तथा पश्‍चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्‍तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं।
₹समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्‍तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्‍नति की चोटी पर जा पहुँचा था।
रामगुप्त-

●समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, लेकिन इसके राजा बनने में विभिन्‍न विद्वानों में मतभेद है।
●विभिन्‍न साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त।
●रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था।
●वह शकों द्वारा पराजित हुआ और अत्यन्त अपमानजनक सन्धि कर अपनी पत्‍नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को भेंट में दे दिया था, लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा ही वीर एवं स्वाभिमानी व्यक्‍ति था।
●वह छद्‍म भेष में ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के पास गया।
●फलतः रामगुप्त निन्दनीय होता गय्श। तत्पश्‍चात्‌ चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी। उसकी पत्‍नी से विवाह कर लिया और गुप्त वंश का शासक बन बैठा।
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य-

●चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ।
●वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था।
●वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने ३७५ से ४१५ ई. तक (४० वर्ष) शासन किया।
●हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की।
● उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये।
●चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई।
●वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया।
● उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की।
  • वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्‍ति से शकों का उन्मूलन किया। कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था।
  • चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ही फाह्यान नामक चीनी यात्री (३९९ ई.) आया था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजय यात्रा
चन्द्रगुप्त एक महान प्रतापी सम्राट था। उसने अपने साम्राज्य का और विस्तार किया।
(१) शक विजय- पश्‍चिम में शक क्षत्रप शक्‍तिशाली साम्राज्य था। ये गुप्त राजाओं को हमेशा परेशान करते थे। शक गुजरात के काठियावाड़ तथा पश्‍चिमी मालवा पर राज्य करते थे। ३८९ ई. ४१२ ई. के मध्य चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर आक्रमण कर विजित किया।
(२) वाहीक विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार चन्द्र गुप्त द्वितीय ने सिन्धु के पाँच मुखों को पार कर वाहिकों पर विजय प्राप्त की थी। वाहिकों का समीकरण कुषाणों से किया गया है, पंजाब का वह भाग जो व्यास का निकटवर्ती भाग है।
(३) बंगाल विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था।
(४) गणराज्यों पर विजय- पश्‍चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों द्वारा समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्‍चात्‌ अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी गई थी।
परिणामतः चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा इन गणरज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में विलीन किया गया। अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्‍चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्‍न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि उल्लेखनीय थे।
निस्संदेह चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म का चरमोत्कर्ष का काल रहा था।
कुमारगुप्त प्रथम (४१५ ई. से ४५५ ई.)-

चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्‍चात्‌ ४१५ ई. में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्‍नी ध्रुवदेवी से उत्पन्‍न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। यह कुमारगुप्त के बसाठ (वैशाली) का राज्यपाल था।
  • कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था। साम्राज्य की उन्‍नति के पराकाष्ठा पर था। इसने अपने साम्राज्य का अधिक संगठित और सुशोभित बनाये रखा। गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था।
  • कुमारगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य की पूरी तरह रक्षा की जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्‍चिम में अरब सागर तक विस्तृत था।
  • कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों या मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने अनेक उपाधियाँ धारण कीं। उसने महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी।
  • मिलरक्द अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक सुख एवं शान्ति का वातावरण विद्यमान था।
  • कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था, किन्तु उसने धर्म सहिष्णुता की नीति का पालन किया।
  • गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं। उसने अधिकाधिक संक्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएं प्रचलित की थीं। उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्‍वविद्यालय की स्थापना की गई थी।
कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल की प्रमुख घटनओं का निम्न विवरण है-
१. पुष्यमित्र से युद्ध-

भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम क्षण में शान्ति नहीं थी। इस काल में पुष्यमित्र ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने किया था। उसने पुष्यमित्र को युद्ध में परास्त किया।
२. दक्षिणी विजय अभियान-

कुछ इतिहास के विद्वानों के मतानुसार कुमारगुप्त ने भी समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत का विजय अभियान चलाया था, लेकिन सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है।
अश्‍वमेध यज्ञ-

 सतारा जिले से प्राप्त १,३९५ मुद्राओं व लेकर पुर से १३ मुद्राओं के सहारे से अश्‍वमेध यज्ञ करने की पुष्टि होती है।
स्कन्दगुप्त (४५५ ई. से ४६७ ई.)-

●पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की ४५५ ई. में मृत्यु हो गयी थी।
●उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा।
●उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की।
● उसने १२ वर्ष तक शासन किया। स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं। ●कहोम अभिलेख में स्कन्दगुप्त को शक्रोपन कहा गया है।
●उदारता एवं परोपकरिता का कार्य- स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी।
●स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी।
●जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था उसने दो माह के भीतर अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।
हूणों का आक्रमण-

 हूणों का प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के काल में हुआ था। हूण मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी। हूणों ने अपनी जनसंख्या और प्रसार के लिए दो शाखाओं में विभाजित होकर विश्‍व के विभिन्‍न क्षेत्रों में फैल गये। पूर्वी शाखा के हूणों ने भारत पर अनेकों बार आक्रमण किया। स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमण से रक्षा कर अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचाया।

पुरुगुप्त- 


पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।
कुमारगुप्त द्वितीय-

पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है।
बुधगुप्त-

कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया।
ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था।

नरसिंहगुप्त बालादित्य- 


बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना।
इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्‍तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है।
कुमारगुप्त तृतीय-

नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था।

गोविन्दगुप्त का विद्रोह- 


यह स्कन्दगुप्त का छोटा चाचा था, जो मालवा के गवर्नर पद पर नियुक्‍त था। इसने स्कन्दगुप्त के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। स्कन्दगुप्त ने इस विद्रोह का दमन किया।

वाकाटकों से युद्ध- 


मन्दसौर शिलालेख से ज‘जात होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया।

गुप्त साम्राज्य की अवनति- 


स्कन्दगुप्त राजवंश का आखिरी शक्‍तिशाली सम्राट था। ४६७ ई. उसका निधन हो गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए-

पुरुगुप्त- 


यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था।

दामोदरगुप्त- 

कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था।

महासेनगुप्त-


 दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। उसने मौखरि नरेश अवन्ति वर्मा की अधीनता स्वीकार कर ली। महासेनगुप्त ने असम नरेश सुस्थित वर्मन को ब्राह्मण नदी के तट पर पराजित किया।
अफसढ़ लेख के अनुसार महासेनगुप्त बहुत पराक्रमी था।
देवगुप्त- महासेनगुप्त के बाद उसका पुत्र देवगुप्त मलवा का शासक बना। उसके दो सौतेले भाई कुमारगुप्त और माधवगुप्त थे।
देवगुप्त ने गौड़ शासक शशांक के सहयोग से कन्‍नौज के मौखरि राज्य पर आक्रमण किया और गृह वर्मा की हत्या कर दी।
प्रभाकर वर्धन के बड़े पुत्र राज्यवर्धन ने शीघ्र ही देवगुप्त पर आक्रमण करके उसे मार डाला।
माधवगुप्त-

 हर्षवर्धन के समय में माधवगुप्त मगध के सामन्त के रूप में शासन करता था। वह हर्ष का घनिष्ठ मित्र और विश्‍वासपात्र था। हर्ष जब शशांक को दण्डित करने हेतु गया तो माधवगुप्त साथ गया था। उसने ६५० ई. तक शासन किया।
हर्ष की मृत्यु के उपरान्त उत्तर भारत में अराजकता फैली तो माधवगुप्त ने भी अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित किया।

गुप्तोत्तर बिहार


●गुप्त साम्राज्य का ५५० ई. में पतन हो गया। 
●गुप्त वंश के पतन के बाद भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीकरण एवं अनिश्‍चितता का माहौल उत्पन्‍न हो गया। अ
●नेक स्थानीय सामन्तों एवं शासकों ने साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों में अलग-अलग छोते-छोटे राजवंशों की स्थापना कर ली।
● इसमें एक था- उत्तर गुप्त राजवंश। इस राजवंश ने करीब दो शताब्दियों तक शासन किया। इस वंश के लेखों में चक्रवर्ती गुप्त राजाओं का उल्लेख नहीं है।
●परवर्ती गुप्त वंश के संस्थापक कृष्णगुप्त ने (५१० ई. ५२१ ई.) स्थापना की।
●अफसढ़ लेख के अनुसार मगध उसका मूल स्थान था, जबकि विद्वानों ने उनका मूल स्थान मालवा कहा गया है।
●उसका उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ है। उत्तर गुप्त वंश के तीन शासकों ने शासन किया। तीनों शासकों ने मौखरि वंश से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रह।

कुमारगुप्त-

 यह उत्तर गुप्त वंश का चौथा राजा था जो जीवित गुप्त का पुत्र था। यह शासक अत्यन्त शक्‍तिशाली एवं महत्वाकांक्षी था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसका प्रतिद्वन्दी मौखरि नरेश ईशान वर्मा समान रूप से महत्वाकांक्षी शासक था। इस समय प्रयाग में पूष्यार्जन हेतु प्राणान्त करने की प्रथा प्रचलित थी।
हांग गांगेय देव जैसे शसकों का अनुसरण करते हुए कुमार गुप्त ने प्रयाग जाकर स्वर्ग प्राप्ति की लालसा से अपने जीवन का त्याग किया।

पाल वंश

यह पूर्व मध्यकालीन राजवंश था। जब हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पन६न हो गया, तब बिहार, बंगाल और उड़ीसा के सम्पूर्ण क्षेत्र में पूरी तरह अराजकत फैली थी।
इसी समय गोपाल ने बंगाल में एक स्वतन्त्र राज्य घोषित किया। जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया गया था। वह योग्य और कुशल शासक था, जिसने ७५० ई. से ७७० ई. तक शासन किया। इस दौरान उसने औदंतपुरी (बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया। पाल शासक बौद्ध धर्म को मानते थे। आठवीं सदी के मध्य में पूर्वी भारत में पाल वंश का उदय हुआ। गोपाल को पाल वंश का संस्थापक माना जाता है।
धर्मपाल (७७०-८१० ई.)- गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल ७७० ई. में सिंहासन पर बैठा। धर्मपाल ने ४० वर्षों तक शासन किया। धर्मपाल ने कन्‍नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा। उसने कन्‍नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया। चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की। धर्मपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसने काफी मठ व बौद्ध विहार बनवाये।
उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया था। उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे। उल्लेखनीय है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था।
देवपाल (८१०-८५० ई.)-

●धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा।
●इसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया।
●देवपाल के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था।
●देवपाल ने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई। उसने पूर्वोत्तर में प्राज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया।
● कन्‍नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था। उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे।
●देवपाल ने जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए ५ गाँव अनुदान में दिए।
  • देवपाल ने ८५० ई. तक शासन किया था। देवपाल के बाद पाल वंश की अवनति प्रारम्भ हो गयी। मिहिरभोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया।
  • ११वीं सदी में महीपाल प्रथम ने ९८८ ई.-१००८ ई. तक शासन किया। महीफाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है। उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया।
  • महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्‍न कर दिया था। बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार मॆम सेन आदि शक्‍तिशाली हो गये थे।
  • रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार किया था।
  • सेन शसकों वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया।
  • इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।

मिथिला के कर्नाट शासक:-

●रामपाल के शासनकाल में १०९७ ई. से १०९८ ई. तक में ही तिरहुत में कर्नाट राज्य का उदय हो गया।
●कर्नाट राज्य का संस्थापक नान्यदेव था।
●नन्यदेव एक महान शासक था। उनका पुत्र गंगदेव एक योग्य शासक बना।
●नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमरॉवगढ़ बनाई।
●कर्नाट शासकों का इस वंश का मिथिला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है।
★वैन वार वंश के शासन तक मिथिला में स्थिरता और प्रगति हुई। नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था।

सेनवंश:-
●सामन्त सेन सेन वंश का संस्थापक था। विजय सेन, बल्लाल्सेन, लक्ष्मण सेन आदि शासक बने।
●सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार पर शासन किया।
●विजय सेन शैव धर्मानुयायी था। उसने बंगाल के देवपाड़ा में एक झील का निर्माण करवाया।
●विजय एक लेखक भी थे जिसने ‘दान सागर’ और ‘अद्‍भुत सागर’ दो ग्रन्थों की रचना की।
●लक्ष्मण सेन सेन वंश का अन्तिम शासक था।
●हल्लायुद्ध इसका प्रसिद्ध मन्त्री एवं न्यायाधीश था।
●गीत गोविन्द के रचयिता जयदेव भी लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे।
●लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्मानुयायी था।
  • सेन राजाओं ने अपना साम्राज्य विस्तार क्रम में ११६० ई. में गया के शासक गोविन्दपाल से युद्ध हुआ। ११२४ ई. में गहड़वाल शासक गोविन्द पाल ने मनेर तक अभियान चलाया।
  • जयचन्द्र ने ११७५-७६ ई. में पटना और ११८३ ई. के मध्य गया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।
  • कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर उसने तुर्की का सहयोग लिया।
  • उसी समय बख्तियार खिलजी भी बिहार आया और नरदेव सिंह को धन देकर उसे सन्तुष्ट कर लिया और नरदेव सिंह का साम्राज्य तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैल गया।
  • कर्नाट वंश के शासक ने सामान्य रूप से दिल्ली सल्तनत के प्रान्तपति नियुक्‍त किये गये
  • बिहार और बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक ने १३२४-२५ ई. में आधिपत्य कर लिया। उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह था। 
  • हरिसिंह तुर्क सेना से हार मानकर नेपाल की तराई में जा छिपा। इस प्रकार उत्तरी और पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश १३७८ ई. में समाप्त हो गया।

आदित्य सेन- 

माधवगुप्त की मृत्यु ६५० ई. के बाद उसका पुत्र आदित्य सेन मगध की गद्दी पर बैठा। वह एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक था।
  • अफसढ़ और शाहपुर के लेखों से मगध पर उसका आधिपत्य प्रंआनित होता है।
  • मंदार पर्वत में लेख के अंग राज्य पर आदित्य सेन के अधिकार का उल्लेख है। उसने तीन अश्‍वमेध यज्ञ किये थे।
  • मंदार पर्वत पर स्थित शिलालेख से पता चलता है कि चोल राज्य की विजय की थी।
  • आदित्य सेन के राज्य में उत्तर प्रदेश के आगरा और अवध के अन्तर्गत एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने वाला प्रथम शासक था।
  • उसने अपने पूर्वगामी गुप्त सम्राटों की परम्परा का पुनरूज्जीवन किया। उसके शासनकाल में चीनी राजदूत वांग यूएन त्से ने दो बार भारत की यात्रा की।
  • कोरियन बौद्ध यात्री के अनुसार उसने बोधगया में एक बौद्ध मन्दिर बनवाया था।
  • आदित्य सेन ने ६७५ ई. तक शासन किया था।

आदित्य सेन के उत्तराधिकारी तथा उत्तर गुप्तों का विनाश-

●आदित्य सेन की ६७५ ई. में मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवगुप्त द्वितीय हुआ।
● उसने भी परम भट्टारक महाधिराज की उपाधि धारण की। चालुक्य लेखों के अनुसार उसे सकलोत्तर पथनाथ कहा गया है।
  • इसके बाद विष्णुगुप्त तथा फिर जीवितगुप्त द्वितीय राजा बने।
  • जीवितगुप्त द्वितीय का काल लगभग ७२५ ई. माना जाता है। जीवितगुप्त द्वितीय का वध कन्‍नौज नरेश यशोवर्मन ने किया।
  • जीवितगुप्त की मृत्यु के बाद उत्तर गुप्तों के मगध साम्राज्य का अन्त हो गया।

मौखरि वंश:-

●मौखरि वंश का शासन उत्तर गुप्तकाल के पतन के बाद स्थापित हुआ था।
●गया जिले के निवासी मौखरि लोग जो चक्रवर्ती गुप्त राजवंश के समय उत्तर गुप्तवंश के लोगों की तरह सामन्त थे।
●मौखरि वंश के लोग उत्तर प्रदेश के कन्‍नौज में तथा राजस्थान के बड़वा क्षेत्र में तीसरी सदी में फैले हुए थे।
●मौखरि वंश के शासकों को उत्तर गुप्त वंश के चौथे शासक कुमारगुप्त के साथ युद्ध हुआ था जिसमें ईशान वर्मा ने मौखरि वंश से मगध को छीन लिया था।
●मौखरि वंश के सामन्त ने अपनी राजधानी कन्‍नौज बनाई। कन्‍नौज का प्रथम मौखरि वंश का सामन्त हरिवर्मा था। उसने ५१० ई. में शासन किया था। उसका वैवाहिक सम्बन्ध उत्तर वंशीय राजकुमारी हर्षगुप्त के साथ हुआ था। ईश्‍वर वर्मा का विवाह भी उत्तर गुप्त वंशीय राजकुमारी उपगुप्त के साथ हुआ था। यह कन्‍नौज तक ही सीमित रहा। यह राजवंश तीन पीढ़ियों तक चलता रहा
हरदा लेख से स्पष्ट होता है कि सूर्यवर्मा ईशान वर्मा का छोटा भाई था। अवंति वर्मा सबसे शक्‍तिशाली तथा प्रतापी राजा था। इसके बाद मौखरि वंश का अन्त हो गया।

Note:-लेखन कार्य आगे जारी है!

Comment

No comments:

Post a Comment