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# A R Y A #
Friday, 28 September 2018
Tuesday, 25 September 2018
CPF
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Thursday, 20 September 2018
आर्यों की जन्मभूमि और उनका प्रसार
आर्यों की जन्मभूमि और उनका प्रसार (साक्ष्य के साथ)
आर्यों (Aryans) की जन्मभूमि कहाँ पर थी, इस विषय में इतिहास के विद्वानों में बड़ा मतभेद है. आर्य (Aryans) कहाँ से आये, वे कौन थे इसका पता ठीक से अभी तक चल नहीं पाया है. कुछ विद्वानों का मत है कि वे डैन्यूब नदी के पास ऑस्ट्रिया-हंगरी के विस्तृत मैदानों में रहते थे. कुछ लोगों का विचार है कि उनका आदिम निवास-स्थान दक्षिण रूस में था. बहुत-से विद्वान ये मत रखते थे कि आर्य (Aryans) मध्य एशिया के मैदानी भागों में रहते थे. फिर वहां से वे फैले. और कुछ लोगों का यह मानना है कि आर्य (Aryans) लोग भारत के आदिम निवासी थे और यही से वे संसार के अन्य भागों में फैले.
फिर भी, अधिकांश विद्वानों का मत है कि आर्य (Aryans) लोग मध्य एशिया के मैदानी भागों में रहते थे. उनके इधर-उधर फ़ैल जाने का कारण उनका चारागाह की तलाश करना माना जाता है. आर्य (Aryans) देखने में लम्बे-चौड़े और गोरे रंग के थे. वे घुमंतू प्रवृत्ति के होते थे. उनकी भाषा लैटिन, यूनानी आदि प्राचीन यूरोपीय भाषाओं तथा आज-कल की अंग्रेजी, फ्रांसीसी, रुसी तथा जर्मन भाषाओं से मिलती-जुलती थी. अधिकांश इतिहासकारों और विद्वानों के मत से तो यही लगता है कि यूरोप और भारत के आधुनिक निवासियों के पूर्वज एक ही स्थान में रहते थे और वह स्थान मध्य-एशिया में था.
आर्यों (Aryans) के Origin के कुछ साक्ष्य
एशिया में उनका उल्लेख सर्वप्रथम एक खुदे हुए लेख में पाया जाता है जो ई.पू. 2500 के लगभग का है. घोड़ों की सौदागिरी करने के लिए वे मध्य एशिया से एशियाई कोचक में आये. यहाँ आकर कोचक और मेसोपोटामिया को जीतकर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया. वेवीलोनिया (जो अभी Iraq में है) के इतिहास में आर्य (Aryans) 'मिटन्नी” नाम से प्रसिद्ध है. उनके राजाओं के नाम आर्यों (Aryans) के नामों से मिलते-जुलते जैसे 'दुशरत्त” (दुक्षत्र) और 'सुवरदत्त” (स्वर्दत्त). बोगाज-कोई (Bogl as-Koi) में पाये हुए और तेल-यल-अमर्ना (Tell-al-Amarna) के लेखों से यह सिद्ध होता है कि ये लोग भी आर्यों (Aryans) के जैसे सूर्य, वरुण, इंद्र तथा मरूत की पूजा करते थे. उनके देवताओं के 'शुरियस” और 'मरूत्तश ” संस्कृत के शब्द सूर्य तथा मरूत ही है. ज्ञात होता है कि ई.पू. 1500 के लगभग मेसोपोटामिया की सभ्यता को नष्ट करनेवाले लोग उन्हीं आर्य Aryans के पूर्वज थे जिन्होंने भारत के द्रविड़ों को हराया और वेदों की रचना की.
आर्यों (Aryans)की एक दूसरी शाखा भी थी जो फारस के उपजाऊ मैदानों में पाई जाती थी. उन्हें इंडो-ईरानियन कहा जाता था. पहले इन दोनों दलों के बीच कोई स्पष्ट अंतर नहीं दिखता था. जैसे वे एक ही देवताओं को पूजते थे, पूजा-पाठ का ढंग भी एक ही था. कालांतर में इरानी दल बदल गया. उनके नामों में भी जो समानता थी, वे भी धीरे-धीरे नहीं रही. ई.पू. छठी शताब्दी के पहले ही उन्होंने अपना धर्म बदल डाला और सूर्य और अग्नि के उपासक बन गए.
आर्य लोगों (Aryans) का बाहर जाना
आर्य (Aryans) लोग अपनी जन्मभूमि को छोड़कर ऐसी जगह गए जहाँ कुछ लोग पहले से निवास करते थे. ऐसी दशा में उन्हें पहले से निवास कर रहे लोगों से लड़ना पड़ा. आर्य (Aryans) लोग अपने जन्म-स्थान से कभी-भी बड़ी संख्या में नहीं निकलते थे. वे टुकड़ों में बँट के ही इधर-उधर जाते थे. पर जहाँ भी जाते थे, उनका द्वंद्व पहले से रह रहे लोगों से होता था. कहीं-कहीं जो अनार्य थे उन्होंने आर्यों (Aryans) की भाषा को तो अपनाया ही, साथ-साथ उन्हीं के देवी-देवताओं को भी पूजने लगे. पर अधिकांश जगह यही हुआ कि आर्यों (Aryans) ने उनकी जमीन और संपत्ति छीन कर उन्हें अपनी प्रजा में शामिल कर लिया. आर्यों (Aryans) के बाहर निकलने का समय ठीक तौर पर निश्चित नहीं किया जा सकता परन्तु विद्वानों का अनुमान है कि यह घटना 3000 ई.पू. से पहले की नहीं है.
आर्यों का आगमन
आर्यों का आगमन
वास्तव में आर्यन उन लोगों को कहा जाता था जो प्राचीन इंडो-युरोपियन भाषा बोलते थे और जो प्राचीन ईरान और उत्तर भारतीय महाद्वीपों में बसने की सोचते थे | आर्यन भारत में पूर्व वैदिक काल मे बसे | इसे सप्तसिंधु या सात नदियों झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास, सतलुज, सिंधु और सरस्वती की धरा कहा गया |
घटना क्रम :
1500 B .C और 600 B .C के युग को पूर्व वैदिक युग (ऋग वैदिक काल) तथा बाद के वैदिक युग में विभाजित किया गया |
पूर्व वैदिक काल : 1500 B .C – 1000 B . C ; यह वह युग था जब आर्यन्स भारत पर आक्रमण कर सकते थे |
बाद का वैदिक युग : 1000 B . C – 600 B . C
वैदिक काल की विशेषताएँ
शब्दों की बुनियाद से निकला वेद शब्द का अर्थ है “जानना” या “उच्च विद्या” | चार प्रकार के महत्वपूर्ण वेद हैं:
ऋगवेद : यह 10 किताबों से बना है और इसमे 1028 भजन हैं जिन्हे अलग अलग ईश्वरों के लिए गाया गया है | मण्डल II से VII को पारिवारिक पुस्तक के नाम से जानते थे क्यूंकि यह पारिवारिक कथाओं जैसे गृतसमदा, विश्वामित्र, बामदेव, आरती, भारद्व्जा और वसीष्ठा पर आधारित थे |
यजुर्वेद : यह राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, नियम और कायदों के बारे में बताता है जिन्हे हमे मानना चाहिए | यह कृष्ण यजुर वेद और शुक्ल यजुर वेद में विभाजित हैं |
सामवेद : यह कीर्तन व प्रार्थनाओं की किताब है और इसमे 1810 भजन हैं |
अथर्ववेद : यह जादुई वचनों , भारतीय औषिधियों और लोक नृत्य पर आधारित है |
ब्राह्मण
ये वेदों की द्वितीय क्ष्रेणी से तालुक्क रखते हैं और इनका संबंध प्रार्थना और बलिदानों के समारोहों से है |
तंद्यमहा ब्राह्मण को सबसे पुराने ब्राह्मण माना जाता था और इनकी कई पौराणिक कथाएँ हैं |
व्रत्यसोमा एक समारोह है जिसमे इन पौराणिक कथाएँ के द्वारा गैर आर्यन को आर्यन में बदला जाता था |
सतपथा एक बहुत महत्वपूर्ण तथा विस्तीर्ण ब्राह्मण है | यह वैदिक काल के दर्शन शास्त्र, धर्म शास्त्र, शैली और रीति-रिवाज के बारे में बताता है |
ब्राह्मण का आखिरी भाग अरण्यकस था | इसके दो भाग ऋगवेद से जुड़े थे ; आइतारेय और कौसितकी |
108 प्रकार के दर्शन शास्त्र हैं जिनका सीधा संबंध आत्मा से है | इन्हे उपनिषद कहते हैं |
बृहदर्णयका और चंदोग्य सबसे पुराने उपनिषद हैं |
यह वचन “सत्यमेव जयते” मुंडका उपनिषद से लिया गया है|
आर्यन का संघर्ष
आर्यन के प्रथम दस्ते ने भारत में लगभग 1500 B . C में आक्रमण किया |
उन्हें भारत के मूल निवासियों जैसे दास व दस्यु से संघर्ष करना पड़ा|
हालांकि दास को आर्यन की तरफ से कभी भी आक्रमण के लिए उत्तेजित नहीं किया गया, पर दस्यु हत्या का ऋग वेद में बारबार उल्लेख किया गया है |
इन्द्र को ऋग वेद में पुरान्द्र के नाम से भी उल्लेख किया गया है जिसे किलों का भंजक भी कहा गया है |
पूर्व आर्यन के किलों का उल्लेख हरप्पा संस्कृति की वजह से भी किया गया है |
आर्यन मूल निवासियों पर इसलिए भी विजय प्राप्त कर पाये क्यूंकि उनके पास बेहतर हथियार,वरमान, तथा घोड़े वाले रथ थे |
आर्यन् दो तरह के संघर्षों में व्यस्त रहे एक तो स्वदेशी लोग व अपने आप में |
आर्यन को पाँच आदिवासी जातियों में विभाजित किया गया जिसे पंचजन कहा गया तथा गैर आर्यन की भी मदद प्राप्त की |
आर्यन गोत्र के शासक भरत व त्रित्सु थे जिन्हे वसिष्ठ पुरोहित मदद करते थे |
भारतवर्ष देश का नाम राजा भरत के ऊपर रखा गया
दसराजन युद्ध
भारत पर भरत गोत्र के राजा ने शासन किया तथा उन्हें दस राजाओं का विरोध भी झेलना पड़ा; पाँच आर्यन तथा पाँच गैर आर्यन|
इनके बीच में हुए युद्ध को दस राजाओं के युद्ध या दसराजन युद्ध के नाम से जाना गया |
परुषनी या रावी नदी पर किया गया युद्ध सूद के द्वारा जीता गया |
बाद में भरत ने पुरू के साथ नाता जोड़ लिया जिससे कुरु नाम का नया गोत्र बना |
बाद के वैदिक युग में कुरु व पांचालों ने गंगा के ऊपरी पठारों की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की जहाँ उन्होने एक साथ राज किया |
वैदिक काल में नदियाँ
सप्त सिंधु शब्द या सात मुख्य नदियों के समूह का भारत के ऋग वेद में उल्लेख किया गया है |
वे सात नदियाँ थीं:
पूर्व में सरस्वती
पश्चिम में सिंधु
सतुद्रु (सतलुज)
विपासा (ब्यास)
असिक्नी(चेनाब)
परुषनी(रावी) और
वितस्ता( झेलम)
आर्यन्स का भारत में आगमन
आर्यन्स का भारत में आगमन
घटना क्रम
1500 B .C और 600 B .C के युग को पूर्व वैदिक युग (ऋग वैदिक काल) तथा बाद के वैदिक युग में विभाजित किया गया |
पूर्व वैदिक काल : 1500 B .C – 1000 B . C ; यह वह युग था जब आर्यन्स भारत पर आक्रमण कर सकते थे |
बाद का वैदिक युग : 1000 B . C – 600 B . C
प्रारंभिक घर व पहचान
आर्यन्स चरवाहे थे यानी वे खेतीबाड़ी नहीं करते थे |
उन्होने कई जानवर पाले थे परंतु घोड़े इनमें सबसे महत्वपूर्ण थे |
आर्यन्स ने अपनी यात्रा पश्चिम एशिया से भारत की ओर 200 B .C के उपरान्त शुरू की |
आर्यन्स का पहला पड़ाव भारत की यात्रा के दौरान ईरान था |
ऋग वेद
यह इंडो यूरोपियन भाषा की सबसे पुरानी पुस्तक है |
इसमें प्रार्थना का सार- संग्रह है, इसे दस किताबों या मण्डल में विभाजित किया गया है |
इसमें प्रार्थनाओं का संकलन है जिसे विभिन्न देवता जैसे अग्नि, वरुण, इन्द्र, मित्रा, इत्यादि को समर्पित किया गया है |
ऋग वेद ने अपने प्रसंग अवेस्ता, ईरनियों की सबसे पुरानी किताब जिसमें ईश्वर के विभिन्न नाम तथा कुछ सामाजिक वर्गों में बांटे हैं |
वैदिक काल में नदियाँ
पहले, आर्यन्स पूर्वी अफ़गानिस्तान, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में रहते थे |
कुछ नदियाँ जैसे कुम्भ, सरस्वती, सिंधु, और इसकी का ऋग वेद में उल्लेख किया गया है|
सप्त सिंधु या सात मुख्य नदियों के समूह का भारत के ऋग वेद में उल्लेख किया गया है |
वे सात नदियाँ शायद इन के बीच में थीं:
पूर्व में सरस्वती
पश्चिम में सिंधु
सतुद्रु (सतलुज)
विपासा (ब्यास)
असिक्नी(चेनाब)
परुषनी(रावी) और
वितस्ता( झेलम)
आदिवासी संघर्ष
आर्यन के प्रथम दस्ते ने भारत में लगभग 1500 B .C में आक्रमण किया |
उन्हें भारत के मूल निवासियों जैसे दास व दस्यु से संघर्ष करना पड़ा|
हालांकि दास को आर्यन की तरफ से कभी भी आक्रमण के लिए उत्तेजित नहीं किया गया, पर दस्यु हत्या का ऋग वेद में बारबार उल्लेख किया गया है |
इन्द्र को ऋग वेद में पुरान्द्र के नाम से भी उल्लेख किया गया है जिसे किलों का भंजक भी कहा गया है |
पूर्व आर्यन के किलों का उल्लेख हरप्पा संस्कृति की वजह से भी किया गया है |
आर्यन मूल निवासियों पर इसलिए भी विजय प्राप्त कर पाये क्यूंकि उनके पास बेहतर हथियार,वरमान, तथा घोड़े वाले रथ थे |
आर्यन् दो तरह के संघर्षों में व्यस्त रहे एक तो स्वदेशी लोग व अपने आप में |
आर्यन को पाँच आदिवासी जातियों में विभाजित किया गया जिसे पंचजन कहा गया तथा गैर आर्यन की भी मदद प्राप्त की |
आर्यन गोत्र के शासक भरत व त्रित्सु थे जिन्हे वसिष्ठ पुरोहित मदद करते थे |
भारतवर्ष देश का नाम राजा भरत के ऊपर रखा गया
दसराजन युद्ध
भारत पर भरत गोत्र के राजा ने शासन किया तथा उन्हें दस राजाओं का विरोध भी झेलना पड़ा; पाँच आर्यन तथा पाँच गैर आर्यन|
इनके बीच में हुए युद्ध को दस राजाओं के युद्ध या दसराजन युद्ध के नाम से जाना गया |
परुषनी या रावी नदी पर किया गया युद्ध सूद के द्वारा जीता गया |
बाद में भरत ने पुरू के साथ नाता जोड़ लिया जिससे कुरु नाम का नया गोत्र बना |
बाद के वैदिक युग में कुरु व पांचालों ने गंगा के ऊपरी पठारों की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की जहाँ उन्होने एक साथ राज किया |
अशोक के समय का सामाजिक जीवन और कला का स्थान
अशोक के समय का सामाजिक जीवन और कला का स्थान
अशोक के शासन-काल में भारत की सामाजिक स्थिति में बहुत परिवर्तन दिखे. ब्राह्मण, श्रवण, आजीवक आदि अनेक सम्प्रदाय थे परन्तु राज्य की ओर से सबके साथ निष्पक्षता का व्यवहार किया जाता था और सभी को इस बात की हिदायत दी जाती थी कि धर्म के मामलों में सहिष्णु होना सीखें, सत्य का आदर करें आदि. कई साधु भी देश और समाज की भलाई कैसे हो, इसमें अपनी पूरी ऊर्जा झोकते थे. कभी-कभी ऐसा देखने को भी मिलता था कि स्वयं राजकुमार और राजकुमारियाँ दूर देश जा कर धर्म का प्रचार कर रहे हैं. लोगों का धार्मिक दृष्टिकोण उदार था और कभी-कभी विदेशियों को भी शिक्षा-दीक्षा दे कर हिन्दू बना दिया जाता था जिन्हें लोग सहर्ष स्वीकार करते थे.
एक यूनानी हिन्दू-धर्म में दीक्षित किया गया और उसका नाम धर्मरक्षित रखा गया. अशोक ने अपनी शिक्षाओं को बोल-चाल की भाषा में स्तंभों पर खुदवाया था. दूसरी तरफ आशिक के काल में कई मठ और पाठशालाएँ भी थीं. इससे मालूम होता है कि उस समय शिक्षा का अच्छा-खासा प्रसार था. इतिहासकार स्मिथ अशोक के काल में शिक्षा का स्थान के सम्बन्ध कुछ इस तरह कहते हैं -
मेरे अनुसार अशोक के समय की बौद्ध-जनता में प्रतिशत शिक्षितों की संख्या, आधुनिक ब्रिटिश भारत के अनेक प्रान्तों की अपेक्षा कहीं अधिक थी.
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण अशोक के शासन-काल में सुखी तथा सदाचारी थे. संबंधियों, मित्रों, नौकरों तथा पशुओं पर भी लोग दया का भाव रखते थे. बाल-विवाह और बहुविवाह की प्रथाएँ अशोक के समय में भी थीं. खुद अशोक की कई रानियाँ थीं. अशोक ने 18 वर्ष की आयु में शादी किया था और उसके बहन की शादी 14 वर्ष की अवस्था में हुई थी. मांसाहार का प्रचालन अशोक के समय घट रहा था.
मौर्यकालीन कला (Mauryan Art)
अशोक ने बहुत-से नगर, स्तूप, विहार और मठ बनवाये. कई जगह स्तंभों को गड़वाया. उसने कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की स्थापना की और एक दूसरा नगर उसने नेपाल में बसवाया. कहा जाता है कि अशोक अपनी बेटी चारुमती और उसके पति देवपाल के साथ वहाँ गया था. अशोक का महल इतना सुन्दर था कि लगभग 900 वर्ष के बाद जब चीनी यात्री फाह्यान भारत आया तो उसे देखकर वह चकित रह गया. उसे विश्वास नहीं हुआ कि वह महल मनुष्य के हाथ का बनाया हुआ है. उसकी चित्रकारी और पत्थर की खुदाई देखकर वह मुग्ध हो गया.
अशोक स्तम्भ (Pillars of Ashoka)
अशोक की बनवाई हुई बहुत-सी ईमारतें अब तो नष्ट हो गई हैं परन्तु साँची का स्तूप (भोपाल में स्थित) तथा भरहुत (इलाहबाद से कुछ दूरी पर) के स्तूप अब भी उसकी स्मृति की रक्षा कर रहे हैं. अशोक ने कई स्तम्भ खड़े करवाए जो देश के विभिन्न भागों में पाए जाते हैं. इनमें से साँची, प्रयाग, सारनाथ और लौरिया नंदन-गढ़ के स्तम्भ अधिक प्रसिद्ध हैं. इनमें कुछ स्तंभों पर सिंह की मूर्तियाँ हैं.
दिल्ली के अशोक स्तम्भ को 1356 ई. में फिरोज शाह तुगलक टोपरा नामक गाँव (मेरठ जिले में स्थित) से उठाकर लगवाया था. यह उस काल के स्थापत्य का एक सुन्दर नमूना है. इसकी बनावट और चमक अत्यंत सुन्दर है. इस स्तम्भ को उठाकर खड़ा करने में उस काल के इंजीनियरों ने जो कुशलता दिखाई, वह भी काबिले-तारीफ है. सर जान मार्शल का कथन है कि सारनाथ के शिला-स्तम्भ पर जानवरों के जो चित्र खोदे गये हैं वह कला और शैली दोनों दृष्टि से बहुत उच्च कोटि के हैं. पत्थर पर इतनी सुन्दर खुदाई भारत में कभी नहीं हुई और न प्राचीन संसार में ही इसके जोड़ की कोई चीज मिलती है.
गुफाएँ
अशोक की कुछ ऐसी गुफाएँ भी हैं जिन पर अशोक के लेख खुदे हुए हैं. ऐसी कुल सात गुफाएँ हैं और गया के पास बराबर की पहाड़ियों में स्थित हैं. उन पर मौर्य-काल की चमकीली पॉलिश हैं. दीवारें और छतें शीशे की तरह चमकती है. मौर्य-काल के कारीगरी जौहरी का काम भी खूब जानते थे. वे बड़ी होशियारी और सफलता के साथ पत्थरों को काटते और उन पर पॉलिश करते थे.
यूनानी कला का प्रभाव
कुछ विद्वानों का मत है कि मौर्य-कालीन कला पर यूनानी तथा ईरानी कला का प्रभाव पड़ा है. किन्तु इस कथन का कोई विश्वसनीय प्रमाण देखने को नहीं मिलता. यह अवश्य है कि उस काल में कई विदेशी भारत आये और यहीं बस गए. अशोक ने पश्चिम के देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर लिया था. संभव है कि उन देशों की कला का यहाँ की कला पर प्रभाव पड़ा हो.
Wednesday, 19 September 2018
कनिष्क: कुषाण राजवंश (78 ईस्वी - 103 ईस्वी)
कनिष्क: कुषाण राजवंश (78 ईस्वी - 103 ईस्वी)
कनिष्क कुषाण साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली शासक था। उसके साम्राज्य की राजधानी पुरूषपुर (पेशावर) थी। उसके शासन के दौरान, कुषाण साम्राज्य उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान से लेकर मथुरा और कश्मीर तक फैल गया था। रबातक शिलालेख से प्राप्त जानकारी के अनुसार कनिष्क विम कदफिसेस का उत्तराधिकारी था जिसने कुषाण राजाओं की एक प्रभावशाली वंशावली स्थापित की।
कनिष्क साम्राज्य का विस्तार:
कनिष्क साम्राज्य निश्चित रूप से बहुत बड़ा था। यह दक्षिणी उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान से उत्तर पश्चिम में अमू दरिया के उत्तर (ऑक्सस) से पश्चिम पाकिस्तान और उत्तरी भारत के साथ-साथ दक्षिण पूर्व में मथुरा (रबातक शिलालेख में यहां तक दावा किया गया है कि उसने पाटलिपुत्र और श्री चंपा को संघटित कर लिया था) तक फैल गया था और कश्मीर को भी अपने अधिकार क्षेत्र में शामिल कर लिया था जहां कनिष्कपुर नाम का एक शहर था। उसके नाम से बारामूला दर्रा ज्यादा दूर नहीं था जिसमें अभी भी एक बड़े स्तूप का आधार मौजूद है।
कनिष्क से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्न प्रकार से हैं:
कनिष्क के शासनकाल के दौरान बौद्ध धर्म महायान और हीनयान में विभाजित किया गया था।
वह 78 ईस्वी शक युग का संस्थापक था।
उसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया था और पुरूषपुर से बौद्ध भिक्षु अश्वघोष को ले लिया था।
चरक और सुश्रुत कनिष्क के दरबार में रहते थे।
कनिष्क बौद्ध धर्म का संरक्षक था और उसने 78 ईस्वी में कश्मीर के कुंडलवन में चौथी बौद्ध परिषद बुलायी थी।
परिषद की अध्यक्षता वासुमित्र द्वारा की गयी थी और इस परिषद के दौरान बौद्ध ग्रंथों का संग्रह लाया गया था और टिप्पणियों को ताम्र पत्र पर उत्कीर्ण किया गया था।
कनिष्क के दरबार में रहने वाले विद्वानों में वासुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन, चरक और पार्श्व शामिल थे
कनिष्क ने चीन में हान राजवंश के राजा हान हो-ती के खिलाफ युद्ध किया। कनिष्क ने दूसरे प्रयास में चीनी राजा को पराजित किया था।
अशोक के शासनकाल का घटनाक्रम
अशोक के शासनकाल का घटनाक्रम - Timeline of Ashoka's Regime
Timeline of Ashoka's Regime
अशोक का राज्यारोहण पिता बिंदुसार के निधन के उपरान्त मगध के सिंहासन पर 268 ई.पू. में हुआ.
अशोक के शासन के 8वें वर्ष में (दीर्घ शिलालेख -XIII) कलिंग विजय के बाद अशोक ने क्षोभ व्यक्त किया. युद्ध का अंत कर धम्म के मार्ग पर चलने की घोषणा की.
नवम वर्ष में बौद्ध धर्म स्वीकारा (लघु शिलालेख - I तथा II) परन्तु वह धर्म के प्रति उतना सक्रिय नहीं रहा.
दशम वर्ष में बोधगया (दीर्घ शिलालेख/III) की यात्रा की और पूर्ण रूप से वह बौद्ध हो गया.
राजकीय शिकार की प्रथा समाप्त कर दी और धम्म यात्रा प्रारम्भ की.
11वें-12वें शासन वर्ष में उसने धम्म पर मौखिक घोषनाएँ करनी शुरू की.
विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में सद्भाव स्थापित किया (लघु शिलालेख)
पशुवध बंद किया (दीर्घ शिलालेख-I).
भारत और विदेशों में अस्पताल खोले और वृक्ष लगवाए (दीर्घ शिलालेख-II)
सीमाओं पर अपने सद्भाव का आश्वासन दिया (लघु कलिंग शिलालेख -II)
विधि और न्याय से शासन करने का व्रत किया (पृथक कलिंग शिलालेख)
धार्मिक सम्प्रदायों में आपसी विरोधों को रोकने का प्रयास किया (दीर्घ शिलालेख - XII)
बारहवें वर्ष (दीर्घ स्तम्भ लेख - VI) में प्रथम राजाज्ञा अभिलिखित की और धम्म आदेश जारी करने शुरू किये.
उसी वर्ष (दीर्घ शिलालेख - IV) धम्म प्रसार के लिए एक जन-प्रदर्शन किया.
उसी वर्ष आजीविकों को (गुहा लेख - I, II) गुफाएँ प्रदान कीं.
उसी वर्ष (दीर्घ शिलालेख - III) अधिकारीयों को अपने-अपने क्षेत्र में भ्रमण का आदेश दिया.
13वें वर्ष में (दीर्घ शिलालेख - V) धम्म-महामात्रों की नियुक्ति की.
मुनि के स्तूप को दुगुना बढ़ाया (निगलिवा - दीर्घ स्तम्भ लेख)
19वें वर्ष में (गुज लेख -III) आजीविकों को तीसरी गुफा प्रदान की.
20वें वर्ष में लुम्बिनी (दीर्घ स्तम्भ लेख-निगलिवा शिलालेख) की यात्रा के मध्य एक स्तम्भ स्थापित करके बलि का अन्त और भू-राजस्व भाग 1/8 कर दिया.
22वें और 24वें वर्षों के मध्य विरुद्ध आचरण वाले बौद्ध भिक्षुओं को विहारों से निकालने का उल्लेख मिलता है और बौद्धों द्वारा गहन अध्ययन की संस्तुति का पता चलता है और द्वितीय महारानी कारूवाकी के दानों की घोषणा की सूचना मिलती है. उसके शासन के 27वें वर्ष में दान को संगठित रूप देने और विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के कार्यकलाप की देखभाल के लिए महामात्रों की नियुक्ति का उल्लेख मिलता है.
26वें वर्ष प्रथम छह स्तम्भ-राज्यादेश जारी (दीर्घ स्तम्भ लेख - IV) किये, जिला अधिकारियों को जन-कल्याण के कार्य करने एवं न्यायपूर्ण निष्पक्ष शासन करने को उद्बोधन दिया (दीर्घ स्तम्भलेख - IV और V).
26वें वर्ष के बाद (महारानी का स्तम्भ अभिलेख) अपनी दूसरी रानी के द्वारा दिए गए उपहारों के बारे में अभिलिखित कराया.
27वें वर्ष में (दीर्घ स्तम्भ लेख - VII) 7वाँ स्तम्भ अभिलेख जारी किया.
संभवतः 27वें वर्ष में (सारनाथ स्तम्भ अभिलेख के बाद) नियम-विरुद्ध प्रवृत्तियों की भर्त्सना की.
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