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Wednesday 31 January 2018

SSC MARCH 2018 MOST IMP  NEW QUESTION PAPER

SSC MARCH 2018 MOST IMP  NEW QUESTION PAPER

BY Royal Science Dhoraji

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SCIENCE NAVNEET STD - 6 TO 8

मेजर सोमनाथ शर्मा (जन्म: 31 जनवरी, 1923; शहादत: 3 नवम्बर, 1947)

सोमनाथ शर्मा
पूरा नाम
मेजर सोमनाथ शर्मा
जन्म
जन्म भूमि
शहादत
3 नवम्बर 1947 (आयु 24)
स्थान
अभिभावक
पिता- मेजर अमरनाथ शर्मा
सेना
रैंक
मेजर
यूनिट
कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन
सेवा काल
युद्ध
द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947)
सम्मान
प्रसिद्धि
परमवीर चक्र पाने वाले ये प्रथम व्यक्ति हैं।
नागरिकता
भारतीय
अन्य जानकारी
सोमनाथ शर्मा के पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी भारतीय सेना में डॉक्टर थे और इनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे, जो 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।


मेजर सोमनाथ शर्मा (अंग्रेज़ीMajor Somnath Sharma, जन्म: 31 जनवरी1923; शहादत: 3 नवम्बर1947भारतीय सेना की कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे जिन्होंने अक्टूबर-नवम्बर1947 के भारत-पाक संघर्षमें अपनी वीरता से शत्रु के छक्के छुड़ा दिये। उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया। परमवीर चक्र पाने वाले ये प्रथम व्यक्ति हैं।
जीवन परिचय
मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी1923 को जम्मू में हुआ था। इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुडा, नैनीताल में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि रखते थे।
सम्मान में जारी डाक टिकट
पिता और मामा का प्रभाव
मेजर सोमनाथ का कीर्तिमान एक गौरव की बात भले ही हो, उसे आश्चर्यजनक इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनके परिवार में फौजी संस्कृति एक परम्परा के रूप में चलती रही थी। इनके पिता यदि चाहते तो एक डॉक्टर के रूप में लाहौर में अपनी प्रैक्टिस जमा सकते थे, किंतु उन्होंने इच्छापूर्वक भारतीय सेनिकों की सेवा करना चुना। पिता के अतिरिक्त मेजर सोमनाथ पर अपने मामा की गहरी छाप पड़ी। उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे तथा 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।
सेना में प्रवेश
मेजर सोमनाथ ने अपना सैनिक जीवन 22 फरवरी1942 से शुरू किया जब इन्होंने चौथी कुमायूं रेजिमेंट में बतौर कमीशंड ऑफिसर प्रवेश लिया। उनका फौजी कार्यकाल शुरू ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और वह मलाया के पास के रण में भेज दिये गये। पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के तेवर दिखाए और वह एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे।
माता-पिता के नाम एक खत
दिसम्बर 1941 में सोमनाथ ने अपने माता-पिता को एक पत्र लिखा था, जो सबके लिए एक आदर्श की मिसाल बन गया था। इन्होंने लिखा था:-
"मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे।"
भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947)
3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुकुम दिया गया। 3 नवम्बर को प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बदगाम जा पहुँचे और उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी। तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।
अंतिम शब्द
इस दौरान, सोमनाथ के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और सैनिकों की कमी महसूस की जा रही थी। सोमनाथ बायाँ हाथ चोट खाया हुआ था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद सोमनाथ खुद मैग्जीन में गोलियां भरकर बंदूक धारी सैनिकों को देते जा रहे थे। तभी एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में ही वो शहीद हो गये। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी:-
"दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।"

Tuesday 30 January 2018

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जे. सी. कुमारप्पा (जन्म: 4 जनवरी, 1892, मद्रास; मृत्यु: 30 जनवरी, 1960, मदुरई) 

जे.सी. कुमारप्पा



पूरा नाम

जे.सी. कुमारप्पा

अन्य नाम

जोसेफ चेल्लादुरई कॉर्नेलिअस

जन्म

4 जनवरी1892

जन्म भूमि

मद्रास के थानजीवर

मृत्यु

30 जनवरी1960

मृत्यु स्थान

मदुरई

कर्म भूमि

भारत

कर्म-क्षेत्र

स्वतंत्रता सेनानी

मुख्य रचनाएँ

इकोनोमी ऑफ़ प्रमानेन्स, गांधीयन इकोनोमिक थोट

शिक्षा

स्नातक

विद्यालय

सायराक्रुज़ विश्वविद्यालय

नागरिकता

भारतीय

संबंधित लेख

महात्मा गाँधी

अन्य जानकारी

गाँधीजी की अनुपस्थिति में कुमारप्पा ने यंग इण्डिया के सम्पादन की ज़िम्मेदारी उठायी और इनके आक्रामक लेखन के कारण ब्रिटिश सरकार ने इन्हें गिरफ्तार करके ढाई साल के लिए ज़ेल भेज दिया। जेल से रिहा होने के बाद इन्होंने बिहार में विनाशकारी भूकम्प के राहत-कार्य के पैसे के लेन-देन का काम देखने लगे।

जे. सी. कुमारप्पा (अंग्रेज़ी: J. C. Kumarappa, जन्म: 4 जनवरी1892मद्रास; मृत्यु: 30 जनवरी1960मदुरईभारत के एक अर्थशास्त्री थे। इनका मूल नाम 'जोसेफ चेल्लादुरई कॉर्नेलिअस' था। ये महात्मा गांधी के निकट सहयोगी रहे थे। जे. सी. कुमारप्पा को भारत में गाँधीवादी अर्थशास्त्र का प्रथम गुरु माना जाता है।

परिचय

जे.सी. कुमारप्पा मद्रास में थानजीवर नामक स्थान पर 4 जनवरी, 1892 में पैदा हुए थे। ये मदुरई के मध्यमवर्गीय परम्परागत इक़साई परिवार से थे। इनके बचपन का नाम जोसफ़ चेल्लादुरै कॉर्नेलियस था। इन्होंने मद्रास से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की तथा उसके बाद लंदन जाकर लेखा-विधि (एकाउंटेंसी) में प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर वहीं लंदन में एकाउंटेंट के रूप में कुछ वर्षों तक काम भी किया। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर और अपनी माता के बुलाने पर ये भारत लौट आये और बम्बई में कुछ समय तक एक ब्रिटिश कम्पनी में काम किया। उसके बाद 1924 में इन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया।[1]

शिक्षा

जे.सी. कुमारप्पा 1927 में फिर उच्च अध्ययन के लिए अमेरिका गये और सायराक्रुज़ विश्वविद्यालय से वाणिज्य एवं व्यापार प्रबंधन में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद इन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में सार्वजनिक वित्त का अध्ययन करके अपने समय के प्रख्यात अर्थशास्त्री एडविन सेलिग्मन के मार्गदर्शन में 'सार्वजनिकवित्त एवं भारत की निर्धनता' पर शोध पत्र लिखा जिसमें भारत की आर्थिक दुर्दशा में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की नीतियों से हुए नुकसान का अध्ययन किया गया था। इस अध्ययन के दौरान ही कुमारप्पा ने पाया कि भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति का मुख्य कारण ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की अनैतिक और शोषक नीतियाँ हैं। इसी बीच उन्होंने अपने मूल पारिवारिक नाम कुमारप्पा को अपने नाम के साथ जोड़ने का फ़ैसला किया।

स्वतंत्रता में योगदान

जे.सी. कुमारप्पा 1929 में भारत वापिस लौट आए। उन्होंने स्वयं महात्मा गांधीजी के साथ मिलकर गुजरात में ग्रामीण सर्वेक्षण संचालित किया तथा केन्द्रीय प्रान्तों में औद्योगिक सर्वेक्षण किया। इन्होंने 1929-1931 के दौरान गुजरात विद्यापीठ में पढ़ाया और गांधीजी की गैर-मोजूदगी में यंग इण्डिया का सम्पादन किया। यंग इण्डिया में कुमारप्पा के लेख ‘सार्वजनिक वित्त और हमारी निर्धनता’ का सिलसिलेवार प्रकाशन भी शुरू हो गया। साथ ही मातर ताल्लुका के आर्थिक सर्वेक्षण का प्रकाशन भी हो रहा था। इन प्रकाशनों के बीच गाँधी ने नमक सत्याग्रह के लिए दांडी यात्रा भी शुरू कर दी। नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण जब ब्रिटिश प्रशासन ने गाँधी को गिरफ्तार कर लिया तो यंग इण्डिया के संचालन की ज़िम्मेदारी कुमारप्पा पर आ गयी। इस पत्र में लेखन के कारण कुमारप्पा को भी गिरफ्तार करके डेढ़ साल के लिए जेल भेज दिया गया।

1931 में गाँधी-इरविन समझौते के बाद कुमारप्पा रिहा हुए और इन्हें लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में ब्रिटिश सरकार और भारत के बीच के वित्तीय लेन देन की समुचित पड़ताल करने के लिए गठित समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इस कांग्रेस अधिवेशन के बाद गाँधी गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंग्लैण्ड चले गये। गाँधी की अनुपस्थिति में कुमारप्पा ने यंग इण्डिया के सम्पादन की ज़िम्मेदारी फिर से उठायी और उनके आक्रामक लेखन के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पुनः गिरफ्तार करके ढाई साल के लिए ज़ेल भेज दिया। जेल से रिहा होने के बाद कुमारप्पा ने बिहार में विनाशकारी भूकम्प के राहत-कार्य के पैसे के लेन-देन का काम देखने लगे। सन् 1934 में ये ऑल इण्डिया विलेज इन्डस्ट्रीज एसोशिएशन के सचिव बनाये गये और गांधीजी के देहान्त के बाद ये इसके अध्यापक बनाये गये कुमारप्पा ने महात्मा गांधी के आर्थिक विचारों को एक वैज्ञानिक आत्मा के साथ व्याख्यायित किया। आधारभूत शिक्षा के प्रतिपादन में भी इन्होंने मुख्य भूमिका निभायी।

रचनाएं

जे.सी. कुमारप्पा एक बहुसर्जक रचनाकार थे और उन्होंने गांधीवादी अर्थशास्त्र में अनेक पुस्तकें लिखी। उनमें दो पुस्तकें इनकी अत्यंत लोकप्रिय हुई जो निम्न प्रकार है-

इकोनोमी ऑफ प्रमानेन्स (Economy of Permanence)

गांधीयन इकोनोमीक थोट (Gandhian Economic)

मृत्यु

जे.सी. कुमारप्पा का निधन 30 जनवरी1960 हुआ। इनकी स्मृति में कुमारप्पा इंस्टीट्यूट ऑफ़ ग्राम स्वराज की स्थापना की गयीं।