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મારા આ બ્લોગમા આપ સૌનું હાર્દિક સ્વાગત છે.- ARYA PATEL

Monday, 1 January 2018

मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत (1326–1884)

मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत
(1326–1884)
राणा हम्मीर सिंह(1326–1364)
राणा क्षेत्र सिंह(1364–1382)
राणा लखा(1382–1421)
राणा मोकल(1421–1433)
राणा कुम्भ(1433–1468)
उदयसिंह प्रथम(1468–1473)
राणा रायमल(1473–1508)
राणा सांगा(1508–1527)
रतन सिंह द्वितीय(1528–1531)
राणा विक्रमादित्य सिंह(1531–1536)
बनवीर सिंह(1536–1540)
उदयसिंह द्वितीय(1540–1572)
महाराणा प्रताप(1572–1597)
अमर सिंह प्रथम(1597–1620)
करण सिंह द्वितीय(1620–1628)
जगत सिंह प्रथम(1628–1652)
राज सिंह प्रथम(1652–1680)
जय सिंह(1680–1698)
अमर सिंह द्वितीय(1698–1710)
संग्राम सिंह द्वितीय(1710–1734)
जगत सिंह द्वितीय(1734–1751)
प्रताप सिंह द्वितीय(1751–1754)
राज सिंह द्वितीय(1754–1762)
अरी सिंह द्वितीय(1762–1772)
हम्मीर सिंह द्वितीय(1772–1778)
भीम सिंह(1778–1828)
जवान सिंह(1828–1838)
सरदार सिंह(1828–1842)
स्वरूप सिंह(1842–1861)
शम्भू सिंह(1861–1874)
उदयपुर के सज्जन सिंह(1874–1884)
फतेह सिंह(1884–1930)
भूपाल सिंह(1930–1947)

राणा हम्मीर सिंह

राणा हम्मीर सिंह
राणा
मेवाड़ के राणा
शासनकाल1326–1364 (38 वर्ष)
पूर्वाधिकारीअरी सिंह
उत्तराधिकारीक्षेत्र सिंह
जीवनसाथीसोंगरी
पिताअरी सिंह
माताउर्मिला
जन्म1314
मृत्यु1378 (उम्र 64)
[दिखाएँ]मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत
(1326–1884)

राणा हम्मीर (1314–78), या हम्मीरा जो १४वीं शताब्दी में भारत के राजस्थान के मेवाड़ के एक योद्धा या एक शासक थे।[1] १३वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने गुहिलों को मेवाड़ से सत्तारूढ़ कर दिया था। हम्मीर जो की कबिले के सबसे गरीब कैडेट थे उन्होंने काफी प्रयास करके फिर से राजवंश को बसाया और साथ ही पहले शाही राणा भी बन गए थे।
हम्मीर इनके अलावा सिसोदिया राजवंश जो कि गुहिलों की ही एक शाखा है के प्रजनक भी बन गए थे ,इसके बाद सभी महाराणा सिसोदिया राजवंश के ही रहे।
इन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले में स्थित चित्तौड़गढ़ में अन्नपूर्णा माता के मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।

सार-संक्षेप

राणा हम्मीर जो कि १४वीं शताब्दी के एक मेवाड़ के शासक थे इनके पिता अरी सिंह थे जबकि माता का नाम उर्मिला था। ये मेवाड़ के पहले राणा कहलाए। हम्मीर मूल रूप से गुहिल राजवंश से थे। बाद में १३वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने गुहिल वंश पर धावा बोल दिया और उनको मेवाड़ से सत्तारूढ़ कर लिया। इसके बाद राणा हम्मीर ने पुनः मेवाड़ राज्य की स्थापना की और सिसोदिया राजवंशबसाया।
एक दूर के रिश्तेदार राणा रतन सिंह नामक शासक जो कि हम्मीर सिंह के साथी बन गए और अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के खिलाफ शामिल हो गए।
हम्मीर जो अपने सात पुत्रों के साथ चित्तौड़ में हुए जौहर में अपना प्राण त्याग दिया। उस जौहर को पद्मिनी का जौहर नाम से जाना जाता है।
लक्षा बप्पा रावल से प्रत्यक्ष कुलीन वंश में उतरे थे, और इसलिए गहलोत (Guhilot) कबीले के थे। लक्षा एक सिसोदिया गाँव से थे जो कि नाथद्वारा का निकटतम है। लक्षा के आठ या नौ पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े पुत्र का नाम अरी सिंह था जिन्होंने उर्मिला से विवाह किया था ,उर्मिला जो कि उनके नजदीकी गाँव उन्नाव की रहने वाली थी जो कि एक गरीब राजपूत परिवार चन्दन वंश की थी। हम्मीर इनके इकलौते पुत्र थे।
लक्षा और अरी दोनों वीरगति में एक साथ विलीन हुए थे। लेकिन वीरगति को प्राप्त होते हुए अपने पुत्र हम्मीर को पीछे छोड़ आये थे। इसके बाद हम्मीर ने भी अपनी बहादुरी दिखाते हुए छोटी सी उम्र में मुंजा नामक डकैत को मारा था।

क्षेत्र सिंह


क्षेत्र सिंह
राणा
मेवाड़ के राणा
शासनकालc. 1364 (१८ साल)
पूर्वाधिकारीराणा हम्मीर सिंह
उत्तराधिकारीराणा लखा
संताने
राणा लखा
पिताराणा हम्मीर सिंह
मृत्यु1382
[दिखाएँ]मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत
(1326–1884)
 खेता या क्षेत्र सिंह [1] (निधन १३८२) मेवाड़ साम्राज्य के शासक थे। इनके पिता का नाम राणा हम्मीर सिंह था जबकि इनके उत्तराधिकार राणा लखा हुए इन्होंने अजमेर और मांडलगढ़ में शासन किया था।

शासन

राणा क्षेत्र सिंह जिन्होंने १३६४ ईस्वी से १३८२ ईस्वी तक मेवाड़ राज्य शासन किया था क्षेत्र सिंह राणा हम्मीर सिंह की सन्तान थे। इन्होंने अजमेर और मांडलगढ़ पर शासन किया था जबकि मंदसौर और छप्पन पर भी राज काज किया था। [2] उनका निधन एक युद्ध के दौरान १६८२ में हो गया था इसके बाद इनके उत्तराधिकारी इनके ही पुत्र राणा लखा हुए थे। [3]

राणा लाखा

राणा मोकल

महाराणा कुम्भा

कुंभ
राणा
बिरला मंदिर, दिल्ली में एक शैल चित्र
बिरला मंदिर, दिल्ली में एक शैल चित
शासन१४३३ - १४६८
राज तिलक१४३३
पूरा नामकुम्भकर्ण सिंह
उपाधियाँहिन्दू सुरत्राण
पूर्वाधिकारीराणा मोकल
उत्तराधिकारीऊदा सिंह
संतानऊदा सिंह
राजवंशशिशोदिया राजवंश
पिताराणा मोकल, मेवाड़
मातासौभाग्य देवी


महाराणा कुम्भा महल
महराणा कुम्भा या महाराणा कुम्भकर्ण (मृत्यु १४६८ ई.) सन १४३३ से १४६८ तक मेवाड़ के राजा थे। महाराणा कुंभकर्ण का भारत के राजाओं में बहुत ऊँचा स्थान है। उनसे पूर्व राजपूत केवल अपनी स्वतंत्रता की जहाँ-तहाँ रक्षा कर सके थे। कुंभकर्ण ने मुसलमानों को अपने-अपने स्थानों पर हराकर राजपूती राजनीति को एक नया रूप दिया। इतिहास में ये 'राणा कुंभा' के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं।
महाराणा कुंभा राजस्थान के शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे। मेवाड़ के आसपास जो उद्धत राज्य थे, उन पर उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़कुंभलगढ़अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उनकी विजयों का गुणगान करता विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। कुंभा का इतिहास केवल युद्धों में विजय तक सीमित नहीं थी बल्कि उनकी शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ उनकी रचनात्मकता भी आश्चर्यजनक थी। ‘संगीत राज’ उनकी महान रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है।

अनुक्रम

परिचय

महाराणा कुम्भकर्ण, महाराणा मोकल के पुत्र थे और उनकी हत्या के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। सन् १४३७ से पूर्व उन्होंने देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अधिकार कर लिया। मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात कीर्तिस्तंभ बनवाया। राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उनके हाथ में आ गया। राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुरनागौरनराणाअजमेरमंडोरमोडालगढ़बूंदीखाटूचाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। महाराणा ने अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए। उसने डीडवाना(नागौर) की नमक की खान से कर लिया और खंडेलाआमेररणथंभोरडूँगरपुरसीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।
किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुन: बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। वे विद्यानुरागी थे, संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविंद आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। इस महान राणा की मृत्यु अपने ही पुत्र ऊदा सिंह के हाथों हुई।

उदयसिंह प्रथम


राणा रायमल

राणा रायमल (१४७३ - १५०९) मेवाड के राजपूत राजा थे। वे राणा कुम्भा के पुत्र थे। उन्होने उदय सिंह को परास्त करके राजगद्दी प्राप्त की। उदय सिंह अपने पिता का हन्ता था।
उनके शासन के आरम्भिक दिनों मेम ही मालवा के शासक घियास शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। इसके शीघ्र बाद गियास शाह के सेनापति जफर खान ने मेवाड़ पर आक्रमण किया किन्तु वह भी मण्डलगढ़ और खैराबाद में पराजित हुआ। रायमल ने राव जोधा की बेटी शृंगारदेवी से विवाह करके राठौरों से शत्रुता समाप्त कर दी। रायमल ने रायसिंह टोडा और अजमेर पर पुनः अधिकार कर लिया। उन्होने मेवाड़ को भी शक्तिशाली बनाया तथा चित्तौड़ के एकनाथ जी मंदिर का पुनर्निर्माण कराया।

राणा सांगा


राणा सांगा का चित्र
राणा सांगा (राणा संग्राम सिंह) (राज 1509-1527) उदयपुर में शिशोदिया राजवंश के राजा थे।
राणा सांगा का पूरा नाम महाराणा संग्रामसिंह था। राणा सांगा ने मेवाड़ में १५०९ से १५२७ तक शासन किया, जो आज भारत के राजस्थान प्रदेश के रेगिस्थान में स्थित है। राणा सांगा सिसोदिया (सूर्यवंशी राजपूत) राजवंशी थे। राणा सांगा ने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध सभी राजपूतों को एकजुट किया। राणा सांगा सही मायनों में एक बहादुर योद्धा व शासक थे जो अपनी वीरता और उदारता के लिये प्रसिद्ध हुये। एक विश्वासघाती के कारण वह बाबर से युद्ध हारे लेकिन उन्होंने अपने शौर्य से दूसरों को प्रेरित किया।
राणा रायमल के बाद सन १५०९ में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे।
इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की ‍रक्षा तथा उन्नति की।
राणा सांगा अदम्य साहसी (indomitable spirit) थे। एक भुजा, एक आँख खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान पराक्रम नहीं खोया, सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह उनकी बहादुरी को दर्शाता है।

रतन सिंह द्वितीय

राणा विक्रमादित्य सिंह

उदयसिंह द्वितीय

महाराणा उदयसिंह द्वितीय
महाराणा
महाराणा उदयसिंह द्वितीय
मेवाड़ के राणा
शासनकालc. 1540 (३२ साल)
राज्याभिषेक1540, चित्तौड़गढ़
पूर्वाधिकारीबनवीर
उत्तराधिकारीमहाराणा प्रताप
पिताराणा सांगा
मातारानी कर्णावती
जन्म4 अगस्त 1522
चित्तौड़गढ़ दुर्गराजस्थानभारत
मृत्यु28 फ़रवरी 1572 (उम्र 49)
गोगुन्दा ,राजस्थान ,भारत
धर्महिन्दू
[दिखाएँ]मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत
(1326–1884)

उदयसिंह द्वितीय
 (जन्म ०४ अगस्त १५२२ – २८ फरवरी १५७२ ,चित्तौड़गढ़ दुर्गराजस्थानभारत) एक मेवाड़के महाराणा थे और उदयपुर शहर के स्थापक थे जो वर्तमान में राजस्थान राज्य है। ये मेवाड़ साम्राज्य के ५३वें शासक थे उदयसिंह मेवाड़ के शासक महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) के चौथे पुत्र थे[1] जबकि इनकी माता का नाम बूंदी की रानी रानी कर्णावती था।

व्यक्तिगत जीवन

उदयसिंह का जन्म चित्तौड़गढ़ में अगस्त १५२२ में हुआ था और इनका निधन १५७२ में हुआ था ,अपने पिता महाराणा सांगा के निधन के बाद रतन सिंह द्वितीय को नया शासक नियुक्त किया गया रत्न सिंह ने १५३१ में शासन किया था।[2]राणा विक्रमादित्य सिंह के शासनकाल के दौरान तुर्की के सुल्तान गुजरात के बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर १५३४ में हमला कर दिया था इस कारण उदयसिंह को बूंदी भेज दिया था ताकि उदयसिंह सुरक्षित रह सके।[1] १५३७ में बनवीर ने विक्रमादित्य का गला घोंटकर हत्या कर दी थी और उसके बाद उन्होंने उदयसिंह को भी मारने का प्रयास किया लेकिन उदयसिंह की धाय (nurse) पन्ना धाय ने उदयसिंह को बचाने के लिए अपने पुत्र चन्दन का बलिदान दे दिया था इस कारण उदयसिंह ज़िंदा रह सके थे ,पन्ना धाय ने यह जानकारी किसी को नहीं दी थी कि बनवीर ने जिसको मारा है वो उदयसिंह नहीं बल्कि उनका पुत्र चन्दन था। इसके बाद पन्ना धाय बूंदी में रहने लगी। लेकिन उदयसिंह को आने जाने और मिलने की अनुमति नहीं दी।और उदयसिंह को खुफिया तरीक से कुम्भलगढ़ में २ सालों तक रहना पड़ा था।
इसके बाद १५४० में कुम्भलगढ़ में उदयसिंह का राजतिलक किया गया और मेवाड़ का राणा बनाया गया। उदयसिंह के सबसे बड़े पुत्र का नाम महाराणा प्रताप था जबकि पहली पत्नी का नाम महारानी जयवंताबाई था।[3] कुछ किवदन्तियों के अनुसार उदयसिंह की कुल २२ पत्नियां और ५६ पुत्र और २२ पुत्रियां थी। उदयसिंह की दूसरी पत्नी का नाम सज्जा बाई सोलंकी था जिन्होंने शक्ति सिंह और विक्रम सिंह को जन्म दिया था जबकि जगमाल सिंह ,चांदकंवर और मांकनवर को जन्म धीरबाई भटियानी ने दिया था ,ये उदयसिंह की सबसे पसंदीदा पत्नी थी। इनके अलावा इनकी चौथी पत्नी रानी वीरबाई झाला थी जिन्होंने जेठ सिंह को जन्म दिया था।

कार्य

१५४१ ईस्वी में वे मेवाड़ के राणा हुए और कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। हजारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब लगा कि गढ़ अब न बचेगा तब जयमल और फत्ता आदि वीरों के हाथ में उसे छोड़ उदयसिंह अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक उदयसागर नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उन्होंने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद उदयसिंह का देहांत हो गया था और अगला शासक जगमाल सिंह को बनाया गयाथा लेकिन कुछ ही दिनों बाद जगमाल को हटा कर महाराणा प्रतापको गद्दी पर बैठाया गया।

महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप सिंह
मेवाड़ के महाराणा
RajaRaviVarma MaharanaPratap.jpg
शासन१५७२ – १५९७
राज तिलक१ मार्च १५७२
पूरा नाममहाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया
पूर्वाधिकारीउदयसिंह द्वितीय
उत्तराधिकारीमहाराणा अमर सिंह[1]
जीवन संगी(11 पत्नियाँ)[2]
संतानअमर सिंह
भगवान दास
(17 पुत्र)
राज घरानासिसोदिया
पिताउदयसिंह द्वितीय
मातामहाराणी जयवंताबाई[2]
धर्मसनातन धर्म
महाराणा प्रताप सिंह ( ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत १५९७ तदानुसार ९ मई १५४०–१९ जनवरी १५९७) उदयपुरमेवाड में शिशोदिया राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने कई सालों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलो को कही बार युद्ध में भी हराया। उनका जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कँवर के घर हुआ था। १५७६ के हल्दीघाटी युद्ध में २०,००० राजपूतों को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के ८०,००० की सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अशव दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें १७,००० लोग मारे गएँ। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंतीत हुई। २५,००० राजपूतों को १२ साल तक चले उतना अनुदान देकर भामा शाह भी अमर हुआ।

अनुक्रम

जीवन


चेतक पर सवार राणा प्रताप की प्रतिमा (सिटी पैलेस, उदयपुर)

बिरला मंदिर, दिल्ली में महाराणा प्रताप का शैल चित्र
महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ।
महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी उनके पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों पुत्रियों के नाम है:-
  1. महारानी अजब्धे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास
  2. अमरबाई राठौर :- नत्था
  3. शहमति बाई हाडा :-पुरा
  4. अलमदेबाई चौहान:- जसवंत सिंह
  5. रत्नावती बाई परमार :-माल,गज,क्लिंगु
  6. लखाबाई :- रायभाना
  7. जसोबाई चौहान :-कल्याणदास
  8. चंपाबाई जंथी :- कल्ला, सनवालदास और दुर्जन सिंह
  9. सोलनखिनीपुर बाई :- साशा और गोपाल
  10. फूलबाई राठौर :-चंदा और शिखा
  11. खीचर आशाबाई :- हत्थी और राम सिंह
महाराणा प्रताप ने भी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया था। अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिये क्रमश: चार शान्ति दूतों को भेजा।
  1. जलाल खान कोरची (सितम्बर १५७२)
  2. मानसिंह (१५७३)
  3. भगवान दास (सितम्बर–अक्टूबर १५७३)
  4. टोडरमल (दिसम्बर १५७३)[3]

हल्दीघाटी का युद्ध

यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी।
इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की।वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैंकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। ,[2]
इतिहासकार मानते हे कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए अकबर के विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितने देर तक टिक पाते पर एेसा कुछ नहीं हुए ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लो के छक्के छुड़ा दिया थे ओर सबसे बड़ी बात यहाँ हे की युद्ध आमने सामने लड़ा गया था! महाराणा कि सेना ने मुगल कि सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था ओर मुगल सेना भागने लग गयी थी।

सफलता और अवसान

ई.पू. 1579 से 1585 तक पूर्व उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशो में विद्रोह होने लगे थे ओर महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्जा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने ई.पू. 1585 में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को ओर भी तेज कर लिया। महाराणा की सेना ने मुगल चौकियां पर आक्रमण शरु कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया , उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था , पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पे लगा हुआ अकबर ग्रहण का अंत ई.पू. 1585 में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए , परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड में उनकी मृत्यु हो गई।
महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सीधरने के बाद अगरा ले आया।
'एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए।

महाराणा प्रताप सिंह के मृत्यु पर अकबर की प्रतिक्रिया

अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, पर उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं था, हालांकि अपने सिद्धांतो और मूल्यो की लड़ाई थी। एक वह था जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था , जब की एक तरफ यह था जो अपनी भारत माँ की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहा था। महाराणा प्रताप के मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था ओर अकबर जनता था कि महाराणा जैसा वीर कोई नहीं हे इस धरती पर। यह समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आंसू आ गए।
महाराणा प्रताप के स्वर्गावसान के वक्त अकबार लाहौर में था और वहीं उसे खबर मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है। अकबर की उस वक्त की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा वो कुछ इस तरह है:-
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राण जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसाा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी
अर्थात्
हे गुहिलोत राणा प्रतापसिंघ तेरी मृत्यु पर शाह यानि सम्राट ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आंसू टपकाए। क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गंवा गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बांए कंधे से ही चलाता रहा। तेरी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया। तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर गालिब रहा। इसलिए मैं कहता हूं कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया।
अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना पूरा जीवन का बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और उनके स्वामिभक्त अश्व चेतक को शत-शत कोटि-कोटि प्रणाम।

अमर सिंह प्रथम

अमर सिंह प्रथम
13 वीं महाराणा की मेवाड़
महाराणा अमर सिंह की चित्रकारी राजा रवि वर्मा द्वारा
13th महाराणा के मेवाड़
शासनकाल23 January 1597 – 26जनवरी 1620
राज्याभिषेक23 January 1597 उदयपुरराजस्थानभारत
पूर्वाधिकारीमहाराणा प्रताप
उत्तराधिकारीकरण सिंह द्वितीय
संताने
करण सिंह द्वितीय
सूरजमल
(2/7 अन्य)
पितामहाराणा प्रताप
मातामहारानी अजबडे
जन्म16 मार्च 1559
चित्तौड़गढ़ दुर्गराजस्थान
मृत्यु26 जनवरी 1620 (उम्र 60)
उदयपुरराजस्थान
धर्महिंदू धर्म
राणा अमर सिंह (1597 – 1620 ई० ) मेवाड के शिशोदिया राजवंश के शासक थे। वे महाराणा प्रताप के पुत्र तथा महाराणा उदयसिंह के पौत्र थे।[1] राणा अमर सिंह भी महाराणा प्रताप जैसे वीर थे। इन्होंने मुगलों से 18 बार युद्ध लड़ा।
प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया। जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफल किये। अंत में खुर्रम ने मेवाड़ अधिकार कर लिया। हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की। वे मेवाड़ के अंतिम स्वतन्त्र शासक थे।
राणा अमर सिंह प्रजा भक्त थे। इनको गुलामी में रहना अच्छा नहीं लगा, अतः इन्होंने आपना राज्य आपने पुत्र को दे कर ख़ुद एक कुटिया में रहने लग गए।

करण सिंह द्वितीय

जगत सिंह प्रथम

राज सिंह प्रथम

राज सिंह प्रथम
मेवाड़ के महाराणा
राज सिंह प्रथम
मेवाड़ के महाराणा
शासनकाल1652–1680
पूर्वाधिकारीजगत सिंह प्रथम
उत्तराधिकारीजय सिंह (मेवाड़ के)
संताने
जय सिंह (मेवाड़ के)
राजीबा बाई बेगम (1676–1707)
पिताजगत सिंह प्रथम
जन्म24 सितम्बर 1629
मृत्यु22 अक्टूबर 1680 (उम्र 51)
राज सिंह प्रथम (24 सितम्बर 1629 – 22 अक्टूबर 1680) मेवाड़ के शिशोदिया राजवंश के शासक (राज्यकाल 1652 – 1680) थे। वे जगत सिंह प्रथम के पुत्र थे। उन्होने औरंगजेब के अनेकों बार विरोध किया।
राजनगर (कांकरोली / राजसमंद) के राजा महाराणा राज सिंह जी का जन्म 24 सितंबर 1629 को हुआ। उनके पिता महाराणा जगत सिंह जी और मां महारानी मेडतणीजी थीं। मात्र 23 वर्ष की छोटी उम्र में उनका राज्याभिषेक हुआ था। वे न केवल एक कलाप्रेमी, जन जन के चहेते, वीर और दानी पुरुष थे बल्कि वे धर्मनिष्ठ, प्रजापालक और बहुत कुशल शासन संचालन भी थे।
उनके राज्यकाल के समय लोगों को उनकी दानवीरता के बारे में जानने का मौका मिला। उन्होने कई बार सोने चांदी, अनमोल धातुएं, रत्नादि के तुलादान करवाये और योग्य लोगों को सम्मानित किया। राजसमंद झील के किनारे नौचोकी पर बड़े-बड़े पचास प्रस्तर पट्टों पर उत्कीर्ण राज प्रशस्ति शिलालेख बनवाये जो आज भी नौचोकी पर देखे जा सकते हैं। इनके अलावा उन्होनें अनेक बाग बगीचे, फव्वारे, मंदिर, बावडियां, राजप्रासाद, द्धार और सरोवर आदि भी बनवाये जिनमें से कुछ कालान्तर में नष्ट हो गये। उनका सबसे बड़ा कार्य राजसमंद झील पर पाल बांधना और कलापूर्ण नौचोकी का निर्माण कहा जा सकता है।
वे एक महान ईश्वर भक्त भी थे। द्वारिकाधीश जी और श्रीनाथ जी के मेवाड़ में आगमन के समय स्वयं पालकी को उन्होने कांधा दिया और स्वागत किया था। उन्होने बहुत से लोगों को अपने शासन काल में आश्रय दिया, उन्हे दूसरे आक्रमणकारियों से बचाया व सम्मानपूर्वक जीने का अवसर दिया। उन्होने एक राजपूत राजकुमारी चारूमति के सतीत्व की भी रक्षा की।
उन्होने ओरंगजेब को भी जजिया कर हटाने और निरपराध भोली जनता को परेशान ना करने के बारे में पत्र भेज डाला। कहा जाता है कि उस समय ओरंगजेब की शक्ति अपने चरम पर थी, पर प्रजापालक राजा राजसिहजी ने इस बात की कोई परवाह नहीं की।
राणा राज सिंह स्थापत्य कला के बहुत प्रेमी थे। कुशल शिल्पकार, कवि, साहित्यकार और दस्तकार उनके शासन के दौरान हमेशा उचित सम्मान पाते रहे। वीर योद्धाओं व योग्य सामंतो को वे खुद सम्मानित करते थे।

मेवाड़ के जय सिंह

अमर सिंह द्वितीय

अमर सिंह द्वितीय
राणा की मेवाड़
अमर सिंह द्वितीय
राणा की मेवाड़
शासनकाल1698–1710
पूर्वाधिकारीजय सिंह
उत्तराधिकारीसंग्राम सिंह द्वितीय
पिताजय सिंह
जन्म03 अक्टूबर 1672
मृत्यु10 दिसम्बर 1710 (उम्र 38

संग्राम सिंह द्वितीय

जगत सिंह द्वितीय

प्रताप सिंह द्वितीय

मेवाड़ के भीम सिंह

मेवाडराजस्थान के शिशोदिया राजवंश के शासक थे। वह महाराणा अरी सिंघ द्वितीय के पुत्र और महाराणा हमीर सिंह द्वितीय के छोटे भाई थे। [1]
दस साल की उम्र में, भीम सिंह अपने भाई, हमीर सिंह द्वितीय, जो एक घाव से 16 साल की उम्र में मृत्यु हो गई थी जब उनके हाथ में एक राइफल फट पड़ी। हमीर सिंह द्वितीय ने एक अस्थिर राज्य पर शासन किया था जिसमें महाराज बागसिंह और अर्जुनसिंह द्वारा एक राजस्व के तहत एक खाली खज़ाना था। भीम सिंह ने इस अस्थिर राज्य को विरासत में प्राप्त किया, इसके अनावृत मराठा सैनिकों ने चित्तोर को लूट लिया था। भीम सिंह के शासन के दौरान सैनिकों की असभ्यता जारी रही और अधिक क्षेत्र खो गया। भीम सिंह की बेटी कृष्णा कुमारी थी, [1] जो 1810 में अपने वंश को बचाने के लिए, 16 वर्ष की आयु में जहर पीने से मृत्यु हो गई।[2]
निर्णायक नेताओं के उत्तराधिकार में भीम सिंह एक कमजोर शासक थे। मवावर को एक बार सबसे मजबूत राजपूत राज्य माना जाता था, क्योंकि मुगल सम्राटों के लंबे प्रतिरोध के कारण, लेकिन 13 जनवरी 1818 तक भीम सिंह को अंग्रेजों के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर करना पड़ा, उनकी सुरक्षा को स्वीकार करना था।

उदयपुर के सज्जन सिंह

उदयपुर के सज्जन सिंह
उदयपुर रियासत के शासक
महाराणा सज्जन सिंह की एक पेंटिंग
उदयपुर रियासत के शासक
शासनकाल1874-84 (10 साल)
पूर्वाधिकारीशम्भू सिंह
उत्तराधिकारीफतेह सिंह
पिताशक्ति सिंह
जन्म18 जुलाई 1859
मृत्यु23 दिसम्बर 1884 (उम्र 25)
[दिखाएँ]मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत
(1326–1884

महाराणा सज्जन सिंह
[1] (१८ जुलाई १८५९ से २३ दिसम्बर १८८४) के भारतीय हिन्दू उदयपुर रियासत के महाराणा यानी शासक थे। जिन्होंने १८७४ से १८८४ तक शासन किया था।[2] सज्जन सिंह बागोर के शक्ति सिंह के पुत्र थे जिनको पहले चचेरे भाई शम्भू सिंह ने अपनाया था और शम्भू के बाद १८७४ में गद्दी पर बैठे थे।[3] इनका निधन बिना वारिस के ही हो गयी थी अर्थात इनकी सन्तान नहीं थी।\

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