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Sunday 18 February 2018

चैतन्य महाप्रभु (जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486[1] - मृत्यु: सन् 1534)

चैतन्य महाप्रभु



पूरा नाम
चैतन्य महाप्रभु
अन्य नाम
विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर
जन्म
18 फ़रवरी सन् 1486[1] (फाल्गुन शुक्लपूर्णिमा)
जन्म भूमि
नवद्वीप (नादिया), पश्चिम बंगाल
मृत्यु
सन् 1534
मृत्यु स्थान
पुरीउड़ीसा
अभिभावक
जगन्नाथ मिश्र और शचि देवी
पति/पत्नी
लक्ष्मी देवी और विष्णुप्रिया
कर्म भूमि
वृन्दावन
विषय
कृष्ण भक्ति
प्रसिद्धि
चैतन्य सगुण भक्ति को महत्त्व देते थे। भगवान का वह सगुण रूप, जो अपरिमेय शक्तियों और गुणों से पूर्ण है, उन्हें मान्य रहा।
नागरिकता
भारतीय
अन्य जानकारी
महाप्रभु चैतन्य के विषय में वृन्दावनदासद्वारा रचित 'चैतन्य भागवत' नामक ग्रन्थ में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण कृष्णदास ने 1590 में 'चैतन्य चरितामृत' शीर्षक से लिखा था। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' गीता प्रेस गोरखपुर ने छापी है।
बाहरी कड़ियाँ
चैतन्य महाप्रभु -अमृतलाल नागर
इन्हें भी देखें
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चैतन्य महाप्रभु (अंग्रेज़ी:Chaitanya Mahaprabhu, जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486[1] - मृत्यु: सन् 1534) भक्तिकाल के प्रमुख संतों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में हिन्दू-मुस्लिमएकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। महाप्रभु चैतन्य के विषय में वृन्दावनदास द्वारा रचित 'चैतन्य भागवत' नामक ग्रन्थ में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण कृष्णदास ने 1590 में 'चैतन्य चरितामृत' शीर्षक से लिखा था। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' गीता प्रेस गोरखपुर ने छापी है।

परिचय

मुख्य लेख : चैतन्य महाप्रभु का परिचय

चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन् 18 फ़रवरी सन् 1486[1]की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि', 'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत् तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के अनुसार इन्होंने केशव भारती नामक संन्यासी से दीक्षा ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व माँ का नाम शचि देवी था।

जन्म काल

मुख्य लेख : चैतन्य महाप्रभु का जन्म काल

चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़ के शासक थे। उनके यहाँ हुसैनख़ाँ नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैनख़ाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैनख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैनख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई हिन्दूसुबुद्धिराय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनख़ाँ हुसैनशाह बन गया।

विवाह

मुख्य लेख : चैतन्य महाप्रभु का विवाह

निमाई (चैतन्य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। सन् 1505 में सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ।

कृष्ण भक्ति

मुख्य लेख : चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण भक्ति

चैतन्य को इनके अनुयायी कृष्ण का अवतार भी मानते रहे हैं। सन् 1509 में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने बिहार के गयानगर में गए, तब वहां इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलकमृदंगझाँझमंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ किया।

चैतन्य महाप्रभु अपने मत की शास्त्रीय व्याख्याओं में अधिक नहीं उलझे, फिर भी उनके प्रवचनों के आधार पर उनके अनुयायियों ने उनके सम्प्रदाय की मान्यताओं का जो विश्लेषण किया, उसके अनुसार 'अचिन्य भेदाभेदवाद' में निर्दिष्ट प्रमुख तत्वों का स्वरूप निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- 

ब्रह्म

चैतन्य के अनुसार ब्रह्म का स्वरूप विशुद्ध आनन्दात्मक है। ब्रह्म विशेष है और उसकी अन्य शक्तियाँ विशेषण हैं। शक्तियों से विशिष्ट ब्रह्म को ही भगवान कहा जाता है।[1] ब्रह्म, ईश्वर, भगवान और परमात्मा ये संज्ञाएं एक ही तत्व की हैं। अचिन्त्य भेदाभेदवादी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जिस तत्व को ईश्वर कहा है, वह ब्रह्म ही है। ईश्वर एक और बहुभाव से अभिन्न होने पर भी गुण और गुणों तथा देह और देही भाव से भिन्न भी है। गुण और गुणी का परस्पर अभेद भी माना जाता है, इसलिए ब्रह्म गुणात्मा भी कहलाता है। भेद जल और उसकी तरंगों की भिन्नता के समान है। जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय का आधार भी ब्रह्म ही है। वही जगत् का उपादान तथा निमित्त कारण है। ब्रह्म की तीन शक्तियाँ मानी गई हैं। परा, अपरा और अविद्या। परा शक्ति के कारण ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण है तथा अपरा और अविद्या (माया) शक्ति के कारण ब्रह्म जगत् का उपादान कारण माना जाता है। अभिव्यक्ति की दृष्टि से ब्रह्म की शक्ति के तीन रूप हैं- सेवित्, संघिनी और ह्लादिनी। चैतन्य के अनुसार ब्रह्म ऐश्वर्य और माधुर्य दोनों से ही युक्त है। यही कारण है कि 'षट्सन्दर्भ' के लेखक ने कृष्ण के विग्रह को भी ब्रह्म से अभिन्न मानने का प्रयास किया और कृष्ण को ही परमशक्ति बताया। जीव गोस्वामी के कथनानुसार ब्रह्म जगत् के स्रष्टा के रूप में भगवान कहलाता है। बलदेव विद्याभूषण सत्ता, महत्ता और स्नेह की अवस्थिति के कारण ब्रह्म को ही 'हरि', 'नारायण' या 'कृष्ण' कहते हैं।

શ્રી ચૈતન્ય મહાપ્રભુ (બંગાળી চৈতন্য মহাপ্রভূ) (૧૪૮૬-૧૫૩૪)નો જન્મ હાલનાં પશ્ચિમ બંગાળમાંનવદ્વીપ મંડળ તરીકે ઓળખાતા પ્રદેશનાં નાદિયા ગામમાં શક સંવત, ૧૪૦૭ ફાગણ સુદ પૂનમનાં દિવસે થયો હતો. તેઓને ઇતિહાસમાં એક સંત/સંન્યાસી અને તે સમયના બંગાળ (હાલના પશ્ચિમ બંગાળ અને બાંગ્લાદેશ) તથા ઓરિસ્સાના એક સમાજ સુધારક ગણવામાં આવે છે. પરંતુ ગૌડીય વૈષ્ણવો તેમને સ્વયં ભગવાન શ્રી કૃષ્ણજ રાધા રાણીના ભાવ અને રૂપમાં માને છે.

તેમની માતાનું નામ શચીદેવી હતું તથા પિતાજીનું નામ જગન્નાથ મિશ્ર હતું. કહેવાય છે, જીવનનાં છેલ્લાં છ વર્ષો મહાપ્રભુજીમાં સાક્ષાત્ ‘રાધાજી’ પ્રગટ થયાં હતાં (સંદર્ભ????). રાધાજી જેમ શ્રીકૃષ્ણનાં વિરહમાં રાત-દિવસ રડતાં હતાં, તેવી જ રીતે શ્રી ચૈતન્ય મહાપ્રભુ પણ શ્રીકૃષ્ણના વિરહમાં ચોધાર આંસુએ રડતા, કયારેક નાચવા લાગતાં, કયારેક દોડવા લાગતાં, કયારેક મૂર્છા ખાઈને જમીન પર ઢળી પડતા. શ્રી મહાપ્રભુને કૃષ્ણ વિરહમાં રડતા જોઈને મોટા-મોટા પંડિતો પણ શ્રીકૃષ્ણની ભકિતમાં લીન થઈ જતાં. કેટલાય દુરાચારીઓ પણ શ્રી મહાપ્રભુના સંગમાં આવીને કૃષ્ણભકત બની ગયા. શ્રી મહાપ્રભુ ન્યાય, વેદાંતના પ્રખર પંડિત હતા. શ્રી મહાપ્રભુ ચોવીસ વર્ષ સુધી સંસારમાં રહ્યા. તેમની પહેલી પત્નીનું નામ ‘લક્ષ્મીદેવી’ હતું જેના મૃત્યુ પછી મહાપ્રભુજીએ ‘વિષ્ણુપ્રિયા’ સાથે લગ્ન કર્યાં.

ભારતના સંન્યાસીઓને શ્રીકૃષ્ણની ભકિતમાં તથા પરમ વૈરાગ્યનાં માર્ગે વાળવા માટે ચોવીસ વર્ષની ઉંમરે ‘કેશવ ભારતીજી’ પાસે સંન્યાસ દીક્ષા ગ્રહણ કરી સંસારનો ત્યાગ કર્યો. અનેક તીર્થોમાં ભ્રમણ કર્યું. શ્રી ચૈતન્ય મહાપ્રભુએ કેટલાય ભકતોને ચતુર્ભુજ રૂપે, દ્વિભુજ રૂપે, છડ્ભુજ રૂપે શ્રીકૃષ્ણ સ્વરૂપનાં દર્શન કરાવ્યાં હતાં. તેમણે અનેક ચમત્કારો પણ કર્યા હતા. કેટલાક રોગી, કોઢીઓને રોગમુકત કર્યા હતા. દક્ષિણમાં એક તળાવના પાણીને ‘મધ’ બનાવ્યું હતું. આજે પણ તે તળાવ ‘મધુ પુષ્કરિણી’નામે દક્ષિણમાં પ્રખ્યાત છે. શ્રી મહાપ્રભુજી પોતાના ભકતોને કહેતા, સર્વ શાસ્ત્રોનો સાર શ્રીકૃષ્ણ નામનો જપ કરવામાં છે. તેમણે ભકતોને મહામંત્ર આપ્યો ‘હરે કૃષ્ણ! હરે કૃષ્ણ! કૃષ્ણ, કૃષ્ણ હરે હરે! હરે રામ હરે રામ! રામ, રામ! હરે હરે!’ જેને મહા મંત્ર અથવા હરે કૃષ્ણ મંત્ર તરિકે લોકો વધુ સારી રીતે જાણે છે. આપણા પૂ. ડોંગરેજી મહારાજ તેમની કથામાં જયારે આ ધૂન બોલાવતા ત્યારે કથામંડપમાં હજારો ભકતોની આંખોમાં આંસુ છલકાઇ જતાં. નગર સંકીર્તનની શરૂઆત કરનાર શ્રી મહાપ્રભુ છે. કેટલીક વાર જગન્નાથપુરીની ગલીઓમાં શ્રી કૃષ્ણ નામનો નાદ કરતા ગલીએ ગલીએ ફરતા. તેમની આ પરંપરા આજે પણ ચાલુ છે. તેમણે લખેલું કૃષ્ણભકિતનું અષ્ટક (શિક્ષાષ્ટક) તેમનાં હૃદયનાં શુદ્ધ ભાવ પ્રગટ કરે છે.

ચૈતન્ય મહાપ્રભુનાં નામો

૧ શ્રી કૃષ્ણ ચૈતન્ય મહાપ્રભુ
૨ ગૌર ચાંદ
૩ વિશ્ર્વંભર
૪ ગૌર હરિ
૫ શચીસુત
૬ નિમાઈ


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